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“वेदर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज हमें प्रिय क्यों हैं?”

“वेदर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज हमें प्रिय क्यों हैं?”

संसार में अनेक संस्थायें एवं संगठन हैं। सब संस्थाओं एवं संगठनों के अपने अपने उद्देश्य एवं उसकी पूर्ति की कार्य-
पद्धतियां है। सभी संगठन अपने अपने उद्देश्यों को पूरा करने के किये कार्य करते हैं।
आर्यसमाज भी विश्व का अपनी ही तरह का एकमात्र अनूठा संगठन है। हमें लगता है
कि आर्यसमाज के समान संसार में दूसरा कोई संगठन नहीं है। जिस उद्देश्य के लिये
ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना की थी और वह विगत 145 वर्षों से उन
उद्देश्यों की पूर्ति के लिये कार्य कर रहा है, ऐसा न तो किसी संस्था का उद्देश्य ही है
और न ही कोई इसके समान कार्य ही कर रहा है। आर्यसमाज का उद्देश्य संसार से
अज्ञान व अन्धकार को दूर कर लोगों को सत्य ज्ञान से युक्त करना तथा उनके जीवन
को सुखी, सम्पन्न व उन्नति से युक्त करना है। आर्यसमाज जानता है कि मनुष्य की
उन्नति सत्य ज्ञान को प्राप्त कर उसके अनुसार आचरण करने से होती है। अतः सत्य ज्ञान को प्रापत कर उसे दूसरों को प्रापत
कराना और संगठित रूप से उस सत्य ज्ञान का प्रचार व प्रसार करना ही मनुष्य जीवन व संसार को सुखी व स्वर्ग बनाने का प्रमुख
साधन व उपाय है।
मनुष्य जब संसार में सत्य ज्ञान पर विचार करता है तो उसे संसार में मनुष्यों द्वारा रचे गये अनेकानेक ग्रन्थों का ज्ञान
होता है। मनुष्य अल्पज्ञ होता है। अतः मनुष्य की कोई भी रचना ज्ञान की दृष्टि से पूर्ण तथा भ्रान्तियों से सर्वथा रहित नहीं हो सकती
व होती है। मनुष्यों में इच्छा, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ व मोह आदि पाये जाते हैं। यश व कीर्ति की इच्छा व अभिलाषा भी मनुष्यों के
मन में होती है। लोकैषण से युक्त भी अधिकांश अल्प ज्ञानी मनुष्य देखे जाते हैं। अतः मनुष्यों की पुस्तकों का अनुसरण करने से
यह व्याधियां भी उनके अनुयायियों व उन ग्रन्थों को पढ़कर मनुष्य में आ जाती हैं। विविध प्रकार के ग्रन्थों को पढ़ने से मनुष्य किसी
व्यक्ति या मत विषेष का अनुयायी बन कर सीमित ज्ञान से युक्त रह जाता है और अपनी व समाज की अनेक प्रकार से हानियां भी
करता है। बहुत से व्यक्ति नास्तिक भी हुए देखे जाते हैं। अतः मनुष्यों को इस संसार के रचयिता व पालक परमात्मा की शरण में
जाकर उसके ज्ञान को ही प्राप्त करना होता है जिसमें सबका कल्याण होने सहित सबको पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति होती है। क्या ऐसा कोई
ज्ञान है जो परमात्मा द्वारा मनुष्यों को दिया गया हो तथा जिसे हम प्राप्त कर सकते हो, जिसको प्राप्त कर हमारी आत्मा व बुद्धि
ज्ञान से आलोकित होकर सभी अज्ञान व पापों से हमें दूर कर सकती है? इसका उत्तर है कि हां, ऐसा सत्य एवं पूर्ण ज्ञान आज भी
हमारे आस पास उपलब्ध है। यह ईश्वरीय ज्ञान सृष्टि के आदि काल में परमात्मा ने अमैथुनी सृष्टि के चार ऋषियों अग्नि, वायु,
आदित्य और अंगिरा को दिया था।
परमात्मा से प्राप्त कर इन चार अग्नि आदि ऋषियों ने इस वेदज्ञान को ब्रह्मा जी व अन्य मनुष्यों को दिया। उन मनुष्यों में
कुछ मनुष्य वेदज्ञान को प्राप्त कर ऋषि बने और इस प्रकार से हमारे देश में ऋषि परम्परा चली जो अद्यावधि जारी है। इस ऋषि
परम्परा की कड़ी में ही ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) हुए जिन्होंने अपने अपूर्व पुरुषार्थ से वेदों को प्राप्त होकर उनके सत्य
वेदार्थों को भी प्राप्त किया था और उस सत्य वेदार्थ का देश देशान्तर में प्रचार कर लोगों को उससे परिचित कराया और उसे
समझाया। वेदज्ञान से ही मनुष्य का सर्वविध कल्याण व उन्नति होकर उसको धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति व सिद्धि हो
सकती है। यह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चार पुरुषार्थ ही मनुष्यों के लिए प्राप्तव्य उत्तम धन व सम्पत्तियां हैं। बिना इनके मनुष्य का
जीवन पूर्ण व सफल नहीं होता। हमारे प्राचीन ऋषि, मुनि, योगी, ज्ञानी व विद्वान वेदज्ञान को प्राप्त होकर उपासना, यज्ञ, परोपकार,
दान आदि कर्मों को करके ही धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होकर अपने जीवन के चरम व उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त किया करते
थे। आज भी मनुष्य के लिये प्राप्तव्य यही चार पदार्थ व पुरुषार्थ हैं। इनको प्रापत किये बिना मनुष्य का जीवन सफल नहीं होता।

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इनकी प्राप्ति भी वेद एवं आर्यसमाज से जुड़ कर तथा वेदार्थ के प्रचारक सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋषि दयानन्द व
उनके अनुयायियों द्वारा रचित वेदभाष्यों, आर्याभिविनय, संस्कार विधि आदि ग्रन्थों सहित 11 उपनिषदों, 6 दर्शनों सहित विशुद्ध
मनुस्मृति तथा इतर वैदिक सत्साहित्य के अध्ययन व उसे धारण करने से होती है। आर्यसमाज इस महान कार्य को कर रहा है इस
लिये मुझे वह मेरे समान विचारों वाले लोगों को आर्यसमाज सबसे प्रिय, उत्तम व सर्वश्रेष्ठ प्रतीत होता है और आर्यसमाज वस्तुतः
सबसे ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ धार्मिक व सामाजिक संगठन है भी। यह एक ऐसा संगठन है कि जो सत्यज्ञान को संक्षेप में प्रस्तुत कर
मनुष्य के जीवन में क्रान्ति उत्पन्न करता है जो उसे ईश्वर की प्राप्ति कराकर उसका साक्षात्कार कराती हैं और उसे कर्म फल के
बन्धनों के अन्र्तगत पाप कर्मों से मुक्त व दूर कर उसे ईश्वर प्रदत्त सर्वोत्तम आनन्द मोक्ष का अधिकारी बनाती हैं।
आर्यसमाज मुझे इसलिये भी प्रिय है कि आर्यसमाज में जो वैदिक साहित्य उपलब्ध होता है उससे मनुष्य के जीवन की
सभी भ्रान्तियां व शंकायें दूर हो जाती हैं। उसे कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। वेदज्ञान को प्राप्त कर सभी मनुष्यों की पूर्ण सन्तुष्टि
होती है। मनुष्य को वेदज्ञान से ईश्वर, जीवात्मा तथा प्रकृति के अमरत्व का सत्य बोध होता है। आत्मा के जन्म व मरण सहित
पुनर्जन्म व कर्मानुसार भिन्न-भिन्न प्राणी योनियों में जन्म व मरण का बोध होता है। वेदों के अनुयायियों को यह ज्ञान प्राप्त होता
है कि संसार में सभी जीव परस्पर समान हैं। यह भी बोध होता है कि हमारे इस जन्म से पूर्व अनन्त काल में अनन्त जन्म हो चुके हैं।
संसार में जो अनन्त आत्मायें हैं, उनसे हमारे माता, पिता, भाई, बहिन, मित्र व शत्रु आदि के अनेकानेक सम्बंध विगत अनन्त काल
में बनते व समाप्त होते रहे हैं। संसार में विद्यमान प्रायः सभी प्राणी योनियों में हमारा जन्म हुआ है। अनेक बार हम मोक्ष का भोग
भी कर चुके हैं। हमें अपने जीवन से अशुभ कर्मों का त्याग करना है। वेदज्ञान के स्वाध्याय से हमें अपना ज्ञान बढ़ाना है और उसे
धारण कर उसका आचरण करते हुए उच्च स्थिति को प्राप्त होने सहित साधना द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करना है। इसी से हमें
सभी दुःखों से मुक्ति व अवकाश प्राप्त होगा। मोक्ष अवस्था को प्राप्त करने के जो साधन हैं, उनका पूर्ण ज्ञान भी हमें ईश्वर के
अनुपम भक्त ऋषि दयानन्द की कृपा से प्राप्त है। हमारे पास ऋषि दयानन्द रचित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदभाष्यभूमिका, ऋग्वेद
आंशिक वेदभाष्य, यजुर्वेद पूर्ण वेदभाष्य, आर्य विद्वानों के सत्य अर्थों से युक्त वेदभाष्य, आर्याभिविनय, संस्कारविधि,
पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु आदि अनेकानेक ग्रन्थों सहित उनके पूना में दिये 15 प्रवचन वा उपदेश भी हमें
प्राप्त हैं जिनसे हमारा इस जीवन व जन्म-जन्मान्तर में कल्याण होता है।
ऋषि दयानन्द के उपुर्यक्त ग्रन्थों एवं इतर प्रामाणिक वैदिक साहित्य के अध्ययन से हमारी आत्मा की सारी भ्रान्तियां दूर
होती हैं व हुई हैं और इसके साथ हमें अन्य मनुष्यकृत मतों व उनके अविद्यायुक्त सिद्धान्तों का ज्ञान भी होता है जो मनुष्य को
जीवन के लक्ष्य तक पहुंचाने के स्थान पर उन्हें लक्ष्य से दूर ले जाते हैं। यह सब लाभ परमात्मा, ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज तथा
इसके उच्च कोटि के विद्वानों के द्वारा हमें प्राप्त हुआ है। हम ईश्वर का धन्यवाद करते हैं कि उसने हमें भारत भूमि में मनुष्य जन्म
देने के साथ हमें आर्यसमाज से जुड़ने का अवसर प्राप्त कराया। यदि हम आर्यसमाज से न जुड़े होते तो हमारा जीवन जो भी होता, वह
हमें आज प्राप्त सत्य ज्ञान से युक्त कदापि न कराता। अतः हम आर्यसमाज के ऋणी हैं और उसका बार बार धन्यवाद करते हैं।
आर्यसमाज के विद्वानों व नेताओं से प्रार्थना करते हैं कि वह आर्यसमाज में आ गई शिथिलता को दूर करने के लिए सफल प्रयास करें
जिससे विश्व का श्रेष्ठ संगठन आर्यसमाज पूरे विश्व को श्रेष्ठ व आर्य बनाने में अपनी भूमिका का सफलतापूर्वक निर्वाह कर सके।
हम आशा करते हैं कि ईश्वर सत्य ज्ञान व ईश्वर के सत्यस्वरूप का प्रचार करने वाले आर्यसमाज संगठन की अवश्य ही रक्षा करेंगे
और इस संगठन को इसका लक्ष्य प्राप्त कराने में सहायक होंगे।
हमने लगभग कुछ समय में अपने उपर्युक्त विचार इस लेख से प्रस्तुत किये हैं। हम आशा करते हैं कि आर्यसमाज से जुड़े
लोग भी हमारी भावना को अपनी भावनाओं के अनुकूल पायेंगे और वह भी आर्यसमाज की उन्नति के लिये प्रयत्न एवं पुरुषार्थ
करेंगे। आर्यसमाज की उन्नति में ही हमारे जीवन की सार्थकता है। ऋषि दयानन्द ने इसी वेद प्रचार तथा वेदादेश ‘कृण्वन्तो
विश्वमार्यम्’ के लिये अपना महान बलिदान दिया था। हमें लगता है कि ऋषि दयानन्द का बलिदान विगत पांच हजार वर्षों में
सर्वोच्च उद्देश्य व लक्ष्य की प्राप्ति के लिए महान बलिदान था। सनातन वैदिक धर्म की जय। आर्यसमाज अमर रहे। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य

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