Category: महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती
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यजुर्वेद भाष्य विवरणम yajurved bhashya vivaranam
Rs.45.00Sold By : The Rishi Mission Trustऋषि दयानन्द के वेदभाष्य को उस समय के विद्वानों ने उल्टा कहा था जिसका उत्तर स्वामीजी ने दिया था उल्टा तो है परन्तु उल्टे का उल्टा है। इस रहस्य को विद्वान् लोग ही नहीं समझ पाए फिर सामान्य जन से इसके समझने की आशा करना व्यर्थ है । इसी कारण विद्वान् हों या सामान्य लोग सबके मन में ऋषि भाष्य को पढ़ते हुए उपस्थित भिन्नता तथा मध्यकालीन परम्परा का परित्याग देखकर अनेक शंकायें उत्पन्न होती रही हैं । ऋषि तो आज रहे नहीं अतः उन शंकाओं के निराकरण का दायित्व ऋषि के अनुयायी विद्वानों का है । इस उत्तरदायित्व को पूरा करने का प्रयत्न पदवाक्यप्रमाणज्ञ पं. ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु ने किया था, उनका यह कार्य प्रकाश में आया उस समय विद्वानों ने इस पर पर्याप्त चर्चा की और शीघ्र इस कार्य को पूर्ण करने के आग्रह भी होते रहे हैं परन्तु दुर्देव को प्रबलता से जिज्ञासुजी के जीवन में १५ अध्याय के पश्चात् यह कार्य प्राग नहीं बढ़ पाया |
ऋषि भक्त ज्ञानचन्दजी ने इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए अनेकशः प्रेरणा दी, सहयोग का आश्वासन दिया। इस क्रम में वजोरचन्द धर्मार्थ ट्रस्ट के माध्यम से श्री पं. ज्ञानचन्दजी के इस ग्रह को परोपकारिणी सभा ने स्वीकार किया और सभा प्रधान श्रद्धेय स्वामी सर्वानन्दजी महाराज तथा कार्यकर्ता प्रधान स्वामी श्रोमानन्दजी महाराज के मार्गदर्शन में सभा ने इस कार्य को सम्पन्न कराने का प्रस्ताव पारित कर दिया ।
प्रस्ताव पारित कर देने मात्र से कार्य सम्भव नहीं होता । आवश्यकता थी योग्य विद्वान् की जो वेद-वेदांगों में गति रखता हो, ऋषि में जिसकी निष्ठा हो तथा आर्ष शैली से जिसने शास्त्रों का अध्ययन किया हो । इसके लिए स्वामी ग्रोमानन्दजी महाराज का ध्यान अपने योग्य शिष्य डा. वेदपाल सुनीथ की ओर गया और पं. वेदपालजी ने प्राचार्यश्री के आदेश को शिरोधार्य करते हुए इस गुरुतर उत्तरदायित्व को वहन करना स्वीकार किया ।
पं. जी के परिश्रम व शैली का एक नमूना आज पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता है। विद्वज्जन इसका अवलोकन करें। सम्मति मार्गदर्शन देकर हमें अनुगृहीत करें। आपका सहयोग इस कार्य को यथोचित दिशा की ओर बढ़ाने में सहायक होगा। आप ही इस कार्य की कसौटी हैं । निश्चय प अपने विचार से अवगत करायेंगे ऐसा विश्वास है ।
अन्त में श्री पं. ज्ञानचन्दजी व वजीरचन्द धर्मार्थ ट्रस्ट का धन्यवाद करता हूँ जिनका पवित्र सहयोग इस कार्य का आधार है ।
मान्य पं. वेदपालजी का सभा की ओर से धन्यवाद है जो प्रत्यन्त परिश्रम र योग्यतापूर्वक इस कार्य को सम्पन्न करने में लगे हैं। प्रभु उन्हें सफलता प्रदान क
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दयानंद ग्रन्थमाला 1-3 Dayanand granthamala 1-3
Rs.700.00Sold By : The Rishi Mission Trustदयानंद ग्रंथ माला भाग-1 ग्रन्थ सूची
सत्यार्थ प्रकाश
स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश
भाग-२ ग्रन्थ सूची
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
भागवत खण्डनम्
पञ्चमहायज्ञविधि:
वेदभाष्य के नमूने का अंक
वेदविरुद्धमतखण्डनम्
वेदान्ति- ध्वान्त-निवारणम् शिक्षापत्री – ध्वान्त- निवारणम्
( स्वामिनारायण मत खण्डन)
आर्याभिविनयः
आर्योद्देश्यरत्नमाला
भ्रान्ति निवारण
जन्मचरित्
जन्मचरित्र के नमूने के अंकदयानन्द ग्रन्थमाला
(भाग-३) ग्रन्थ- सूची –
संस्कारविधिः
संस्कृतवाक्यप्रबोधः
व्यवहारभानु
भ्रमोच्छेदन
अनुभ्रमोच्छेदन
गोकरुणानिधि
काशीशास्त्रार्थ:
हुगली – शास्त्रार्थ
सत्यधर्म्मविचार:
शास्त्रार्थ- जालन्धर
शास्त्रार्थ – बरेली
शास्त्रार्थ उदयपुर
शास्त्रार्थ- अजमेर
उपदेश मञ्जरी
शास्त्रार्थ मसूदा
कलकत्ता- शास्त्रार्थ
आर्यसमाज के नियम ( बम्बई)
आर्यसमाज के नियमोपनियम
स्वीकारपत्र
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सत्यार्थ प्रकाश (41 वा संस्करण) satyarth prakash
Rs.150.00Sold By : The Rishi Mission Trustइस संस्करण के संबंध में !!! परोपकारिणी सभा अजमेर में महर्षि दयानंद सरस्वती के प्राय: सभी ग्रंथों की मूल प्रतियां है, इनमें से सत्यार्थ प्रकाश की दो प्रतियां है, इनके नाम “मूलप्रति” तथा “मुद्रणप्रति” रखे हुए हैं, मूलप्रति से मुद्रणप्रति तैयार की गई थी, मुद्रणप्रति (प्रेस कापी) के आधार पर सन १८८४ इसवी में सत्यार्थप्रकाश का द्वितीय संस्करण छपा था, इतने लंबे अंतराल में विभिन्न संशोधकों के हाथों इतने संशोधन, परिवर्तन तथा परिवर्धन हो गए कि मूलपाठ का निश्चय करना कठिन होने लग गया था, मूल प्रति से मुद्रण प्रति लिखने वाले महर्षि के लेखक तथा प्रतिलिपिकर्ता ने सर्वप्रथम यह फेरबदल की थी, महर्षि अन्य लोकोपकारक कार्यों में व्यस्त रहने से तथा लेखक पर विश्वास करने से मुद्रणप्रति को मूलप्रति से अक्षरश: से नहीं मिला सके, परिणामत: लेखक नें प्रतिलिपि करते समय अनेक स्थलों पर मूल पंक्तियां छोड़कर उनके आशय के आधार पर अपने शब्दों में महर्षि का भाव अभिव्यक्त कर दिया, अनेक स्थानों पर भूल से भी पंक्तियां छूट गई तथा अनेक पंक्तियां दोबारा भी लिखी गई, अनेकत्र मूल शब्द के स्थान पर पर्यायवाची शब्द भी लिख दिए थे मुंशी समर्थदान नें भी पुनरावृति समझकर 13 वें 14 वें समुल्लास की अनेक आयतें और समीक्षाएं काट दि , यह सब करना महर्षि दयानंद सरस्वती के अभिप्राय से विरुद्ध होता चला गया,
परोपकारिणी सभा के अतिरिक्त अन्य प्रकाशको के पास यह सुविधा कभी नहीं रही कि वे मूलप्रति से मिलान करके महर्षि के सभी ग्रंथों का शुद्धतम पाठ प्रकाशित कर सकें परोपकारिणी सभा की ओर से भी कभी-कभी एक मुद्रणप्रति (प्रेस कापी) से ही मिलान करके प्रकाशन किया जाता रहा मूलप्रति की ओर विशेष दृष्टिपात नहीं किया गया (किंतु किसी किसी ने कहीं-कहीं पाठ देखकर सामान्य परिवर्तन किए हैं) और न कभी यह संदेह हुआ कि दोनों प्रतियों में कोई मूलभूत पर्याप्त अंतर भी हो सकता है,
गत अनेक शताब्दियों में ऋषि मुनिकृत ग्रंथों में विभिन्न मतावलम्बियों ने अपने -अपने संप्रदाय के पुष्टियुक्त वचन बना बनाकर प्रक्षिप्त कर दिए हैं इसके परिणामस्वरुप मनुस्मृति, ब्राह्मणग्रंथ, रामायण, महाभारत, श्रोतसूत्र और गृहसूत्र आदि ग्रंथों में वेददि शास्त्रों की मान्यताओं के विपरीत भी लेख देखने को मिलते हैं इसी संभावना का भय है महर्षि दयानंद सरस्वती के ग्रंथों में भी दृष्टिगोचर होने लगा था इस भय के निवारणार्थ परोपकारिणी सभा ने निश्चय किया कि महर्षि के हस्तलेखों से मिलान करके सत्यार्थ प्रकाश आदि सभी ग्रंथों का शुद्ध संस्करण निकाला जाए इसीलिए अनेक विद्वानों के सहयोग और सत्परामार्श के पश्चात संस्करण में निम्नलिखित मापदंड अपनाए गए हैं—
- मूले मूलाभावादमूलं मूलम् ( सांख्य १.६७ ) कारण का कारण और मूल का मूल नहीं हुआ करता, इसलिए सबका मूलकारण होने से सत्यार्थप्रकाश की मूलप्रति स्वत: प्रमाण है
2. मुद्रणप्रति जहां तक मूलप्रति के अनुकूल है, वहां तक उसका पाठ मान्य किया है, प्रतिलिपिकर्ता द्वारा श्रद्धा अथवा भावुकतावश बढ़ाये गए अनावश्यक और अनार्ष वाक्यों को अमान्य किया है
3. जहां मुद्रणप्रति में मूलप्रति से गलत पाठ उतारा और महर्षि उसमें यथामति संशोधन करने का यत्न किया, ऐसी स्थिति में मूलप्रति का पाठ उससे अच्छा होने से उसे स्वीकार किया गया है
4.मुद्रण प्रति में महर्षि जी ने जहाँ-जहाँ सव्ह्स्त से आवश्यक परिवर्तन परिवर्तन किए हैं वे सभी स्वीकार किए हैं
5. सन १८८३ से १८८४ तक प्रकाशित हुए सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय संस्करण में प्रूफ देखते समय मुद्रणप्रति के पाठ से हटकर जो परिवर्तन-परिवर्धन किए गए थे वे भी प्राय: सभी अपनाएं हैं
कुछ विद्वान महर्षि की भाषा में वर्तमान समय अनुकूल परिवर्तन करने का तथा भाव को स्पष्ट करने के लिए कुछ शब्द बढ़ा देने का व्यर्थ आग्रह किया करते हैं यह अनुचित है अतः इस संस्करण में ऐसा कुछ नहीं किया गया है
इस प्रकार इस ग्रंथ को शुद्धतम प्रकाशित करने के लिए विशेष यत्न किया गया है पुनरपि अनवधानतावश वस्तुतः कोई त्रुटि रह गई हो तो शुद्धभाव से सूचित करने पर आगामी आवर्ती में उसे शुद्ध कर दिया जाएगा क्योंकि ऐसे कार्यों में दुराग्रह और अभिमान के छोड़ने से ही सत्यमत गृहित हो सकता है इसी में विद्वता की शोभा भी है
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सम्पूर्ण वेद भाष्य 23 भागों में हिंदी संस्कृत सहित महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती कृत
Rs.7,750.00Sold By : The Rishi Mission Trustsampuran ved bhashy 23 books set hindi & sanskrit sahit (mahrshi dayanad sarsvati,arya muni,vishvnath vidyalankar& braham muni ji )
rigved mahrshi dayanand & arya muni
yajurved mahrshi dayanand
samved swami brahammuni ji
atharved vishvnath vidyalankar
rigved bhashy ashtam mandal uplabdh nahi hai
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