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Category: वैदिक पुस्तकालय अजमेर

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  • मनुष्य की प्रवृत्ति बचपन से ही जिज्ञासु प्रवृत्ति रही है। बच्चे अपने अभिभावकों से अनेकों प्रश्न करते हैं और अभिभावक उनके प्रश्नों के उत्तर देकर ज्ञान की वृद्धि करते हैं। बच्चों के प्रश्नों और बड़ों के प्रश्नों में बहुत कुछ अन्तर रहता है । बड़े गम्भीर प्रश्न पूछते हैं, जिनका उत्तर देने के लिए विशेष विचार मन्थन करना आवश्यक हो जाता है। व्यक्ति जिस क्षेत्र में रुचि रखता है, उसी क्षेत्र में उसकी जिज्ञासाएँ भी बढ़ने लगती हैं। जिज्ञासाओं का आधार स्वाध्याय, विचार, श्रवण आदि बनते हैं। इनसे उठी हुई जिज्ञासाओं का समाधान व्यक्ति स्वयं विचार करके, ग्रन्थों का अवलोकन कर वा किसी विद्वान् से पाकर सन्तुष्ट होता है ।

    जो व्यक्ति न तो प्रवचन आदि सुनता, न ही स्वाध्याय करता, वह व्यक्ति जिज्ञासु प्रवृत्ति का कम मिलेगा, उसके ज्ञान का स्तर भी अल्प होगा और जो स्वाध्याय वा सुने हुए के बल पर प्रश्न उठाकर जिज्ञासा करता है, यह उसकी विचारशीलता का द्योतक है, ऐसा व्यक्ति उत्तरोत्तर ज्ञान की वृद्धि करता रहता है ।

    ‘जिज्ञासा – विमर्श’ पुस्तक में अनेक विषयों को लेकर जिज्ञासा समाधान किया गया है। उनमें एक विषय ‘जीवात्मा’ का है । जिज्ञासु ने जिवात्मा के स्वरूप विषय में पूछा है कि जीवात्मा साकार है या निराकार । जिज्ञासु के इस प्रश्न का आधार एक वर्ग विशेष द्वारा आत्मा को साकार बताना है । इस वर्ग विशेष को छोड़कर अन्य किसी पूर्व के विद्वान् वा वर्तमान के विद्वानों ने आत्मा को साकार नहीं कहा । जहाँ तक मैं जानता हूँ कि आत्मा को साकार मानने वालों की अपनी कल्पना के अतिरिक्त कोई आर्ष प्रमाण नहीं है। इस पुस्तक में महर्षि दयानन्द के प्रमाण देते हुए आत्मा को निराकार सिद्ध किया है, जो कि आत्मा का यह स्वरूप है । आत्मा के साकार – निराकार के विषय में मेरा पाठकों से निवेदन है कि वह किसी स्वयम्भू विद्वान् की बात न मानकर महर्षि की ही बात को मानेंगे तो भ्रान्ति निवारण होता रहेगा अन्यथा ऐसे स्वयम्भू भ्रान्ति में डालते ही रहेंगे ।

    आर्यसमाज में महर्षि के काल से ही जिज्ञासा समाधान की परम्परा चली आयी है। उसी परम्परा को परोपकारी पत्रिका के माध्यम से श्रद्धेय आचार्य सत्यजित् जी ने आरम्भ किया था, अब इस परम्परा को लगभग दो वर्ष से मैं चला रहा हूँ। आचार्य सत्यजित् जी की जिज्ञासा समाधान करने की अपनी एक विशेष शैली है। आचार्य श्री जिज्ञासा के मूल में जाकर समाधान करते हैं कि जिस समाधान से अन्य प्रश्नों का उत्तर भी आ जाता है। मैं इनकी शैली से अत्यधिक प्रभावित रहा हूँ । जिज्ञासासमाधान के लिए आचार्य श्री मेरे अधिक आदर्श हैं।

    ‘जिज्ञासा-विमर्श’ पुस्तक पाठकों के हाथ में है, इसको पुस्तक रूप में देने का श्रेय योगनिष्ठ श्रद्धेय स्वामी विष्वङ् जी को जाता है। इन्हीं की प्रेरणा से परोपकारी पत्रिका में आ रहे ‘जिज्ञासा – समाधान’ स्तम्भ के लेखों को इकट्ठा कर पुस्तक रूप में दिया गया है। स्वामी जी की प्रेरणा के लिए मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूँ । पुस्तक को व्यवस्थित करने में सबसे अधिक सहयोग प्रिय दीपक जी (छिन्दवाड़ा) ने किया है, पुस्तक की प्रूफ रीडिंग ब्र. अमित जी व डॉ. नन्दकिशोर काबरा जी ने की, पुस्तक रूपाकंन श्री कमलेश पुरोहित जी ने किया व प्रकाशन परोपकारिणी सभा ने किया है, इन सबका हृदय से धन्यवाद । पुस्तक प्रकाशन में जिन महानुभावों ने आर्थिक सहयोग किया, उन सबका आभार मानता हूँ | जिज्ञासा – समाधान करने में जिन भी विद्वानों, लेखकों का सहयोग प्राप्त हुआ, उन सभी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हुआ परमेश्वर को धन्यवाद करता हूँ कि यह कार्य अच्छी प्रकार सम्पन्न हुआ।

    सोमदेव, ऋषि उद्यान, अजमेर

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  • दयानन्द दिव्य दर्शन यह कोई पुस्तक नहीं है। वास्तव में पं. देवेन्द्र नाथ मुखोपाध्याय जो महर्षि दयानन्द जीवन के प्रामाणिक लेखक हैं। जिन्होंने आर्यसमाजी न होने परभी अपनी दयानन्द भक्ति के वशीभूत होकर जीवन के पन्द्रह वर्ष से अधिक समय दयानन्द जीवन चरित के प्रामाणिक लेखन `के लिए खोज में लगाये। इस के लिए उन्होंने अपना कितना धन व्यय किया और कितने कष्ट सहन किये इसका हिसाब लगाना संभव नहीं है। यह दुःख और दुर्भाग्य की बात है जब उन्होंने सामग्री का संकलन करके जीवन चरित लेखन का कार्य प्रारंम्भ किया था कि उनका स्वर्गवास हो गया। उनके द्वारा एकत्रित की गई सामग्री के आधार पर पण्डित घासीराम जी ने लिखित सामग्री का हिन्दी में अनुवाद करके स्वामीजी महाराज का जीवन चरित लिखा है। श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय जैसा सुन्दर, प्रामाणिक और विस्तृत जीवन चरित लिखने की कल्पना संजोये थे वह अकाल में ही काल कवलित हो गई और आर्यजगत् एक अनुपम ग्रन्थ से वञ्चित हो गया। यह तो ईश्वरेच्छा है इसमें किसका वश है। परन्तु उन्होंने जीवन चरित की भूमिका के रूप में जो भी लिखा है • वह उनके विचार और स्वापीजी के प्रति उनकी भावना को प्रकाशित करने के लिए पर्याप्त है। ये थोड़े से पृष्ठ उस महान् • व्यक्तित्व का संक्षिप्त रूप है परन्तु ऋषि जीवन का कोई पक्ष अछूता नहीं रह गया है जिस पर प्रकाश नहीं डाला गया है। थोड़े शब्दों में ऋषि की महत्ता को समझने का यह सफल प्रयास है। जो भी व्यक्ति इसे पढ़ेगा वह लेखक के विचार व उद्देश्य से सहमत हुए बिना नहीं रह सकता यह पुस्तक की विशेषता है।

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  • ऋषि दयानन्द के वेदभाष्य को उस समय के विद्वानों ने उल्टा कहा था जिसका उत्तर स्वामीजी ने दिया था उल्टा तो है परन्तु उल्टे का उल्टा है। इस रहस्य को विद्वान् लोग ही नहीं समझ पाए फिर सामान्य जन से इसके समझने की आशा करना व्यर्थ है । इसी कारण विद्वान् हों या सामान्य लोग सबके मन में ऋषि भाष्य को पढ़ते हुए उपस्थित भिन्नता तथा मध्यकालीन परम्परा का परित्याग देखकर अनेक शंकायें उत्पन्न होती रही हैं । ऋषि तो आज रहे नहीं अतः उन शंकाओं के निराकरण का दायित्व ऋषि के अनुयायी विद्वानों का है । इस उत्तरदायित्व को पूरा करने का प्रयत्न पदवाक्यप्रमाणज्ञ पं. ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु ने किया था, उनका यह कार्य प्रकाश में आया उस समय विद्वानों ने इस पर पर्याप्त चर्चा की और शीघ्र इस कार्य को पूर्ण करने के आग्रह भी होते रहे हैं परन्तु दुर्देव को प्रबलता से जिज्ञासुजी के जीवन में १५ अध्याय के पश्चात् यह कार्य प्राग नहीं बढ़ पाया |

    ऋषि भक्त ज्ञानचन्दजी ने इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए अनेकशः प्रेरणा दी, सहयोग का आश्वासन दिया। इस क्रम में वजोरचन्द धर्मार्थ ट्रस्ट के माध्यम से श्री पं. ज्ञानचन्दजी के इस ग्रह को परोपकारिणी सभा ने स्वीकार किया और सभा प्रधान श्रद्धेय स्वामी सर्वानन्दजी महाराज तथा कार्यकर्ता प्रधान स्वामी श्रोमानन्दजी महाराज के मार्गदर्शन में सभा ने इस कार्य को सम्पन्न कराने का प्रस्ताव पारित कर दिया ।

    प्रस्ताव पारित कर देने मात्र से कार्य सम्भव नहीं होता । आवश्यकता थी योग्य विद्वान् की जो वेद-वेदांगों में गति रखता हो, ऋषि में जिसकी निष्ठा हो तथा आर्ष शैली से जिसने शास्त्रों का अध्ययन किया हो । इसके लिए स्वामी ग्रोमानन्दजी महाराज का ध्यान अपने योग्य शिष्य डा. वेदपाल सुनीथ की ओर गया और पं. वेदपालजी ने प्राचार्यश्री के आदेश को शिरोधार्य करते हुए इस गुरुतर उत्तरदायित्व को वहन करना स्वीकार किया ।

    पं. जी के परिश्रम व शैली का एक नमूना आज पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करते हुए प्रसन्नता है। विद्वज्जन इसका अवलोकन करें। सम्मति मार्गदर्शन देकर हमें अनुगृहीत करें। आपका सहयोग इस कार्य को यथोचित दिशा की ओर बढ़ाने में सहायक होगा। आप ही इस कार्य की कसौटी हैं । निश्चय प अपने विचार से अवगत करायेंगे ऐसा विश्वास है ।

    अन्त में श्री पं. ज्ञानचन्दजी व वजीरचन्द धर्मार्थ ट्रस्ट का धन्यवाद करता हूँ जिनका पवित्र सहयोग इस कार्य का आधार है ।

    मान्य पं. वेदपालजी का सभा की ओर से धन्यवाद है जो प्रत्यन्त परिश्रम र योग्यतापूर्वक इस कार्य को सम्पन्न करने में लगे हैं। प्रभु उन्हें सफलता प्रदान क

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  • दयानंद ग्रंथ माला                                                                                                                                                         भाग-1 ग्रन्थ सूची

    सत्यार्थ प्रकाश

    स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश

    भाग-२ ग्रन्थ सूची

    ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
    भागवत खण्डनम्
    पञ्चमहायज्ञविधि:
    वेदभाष्य के नमूने का अंक
    वेदविरुद्धमतखण्डनम्
    वेदान्ति- ध्वान्त-निवारणम् शिक्षापत्री – ध्वान्त- निवारणम्
    ( स्वामिनारायण मत खण्डन)
    आर्याभिविनयः
    आर्योद्देश्यरत्नमाला
    भ्रान्ति निवारण
    जन्मचरित्
    जन्मचरित्र के नमूने के अंक

    दयानन्द ग्रन्थमाला

    (भाग-३) ग्रन्थ- सूची –

    संस्कारविधिः

    संस्कृतवाक्यप्रबोधः

    व्यवहारभानु

    भ्रमोच्छेदन

    अनुभ्रमोच्छेदन

    गोकरुणानिधि

    काशीशास्त्रार्थ:

    हुगली – शास्त्रार्थ

    सत्यधर्म्मविचार:

    शास्त्रार्थ- जालन्धर

    शास्त्रार्थ – बरेली

    शास्त्रार्थ उदयपुर

    शास्त्रार्थ- अजमेर

    उपदेश मञ्जरी

    शास्त्रार्थ मसूदा

    कलकत्ता- शास्त्रार्थ

    आर्यसमाज के नियम ( बम्बई)

    आर्यसमाज के नियमोपनियम

    स्वीकारपत्र

     

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  • भौतिक विरोध मनुष्य को बल बढ़ाने की प्रेरणा देता है। बौद्धिक विरोध सत्य प्रकाशन का अवसर देता है। वे लोग असल के पोषक होते हैं, जो उसका विरोध करने से डरते हैं। जिसने संसार में सत्य की स्थापना का प्रयास किया है, उसे संघर्ष कर. पड़ा है। ऋषि दयानन्द के जीवन में बाल्यकाल से मृत्यु पर्यन्त संघर्ष दिखाई देता है। इसी संघर्ष के कारण वे सत्य को स्थापित करने में समर्थ हो सके। परोपकारिणी सभा, ऋषि के द्वारा स्थापित और उनकी उत्तराधिकारिणी संस्था है। सभा के कार्यों में मुख्य कार्य ऋषि के मन्तव्य पर उठे प्रश्नों का उत्तर देना और ऋषि के उद्देश्यों को पूर्ण करने का प्रयत्न करता है। सभा पूरे सामर्थ्य से इस कार्य में लगी है। वेद, आर्यसमाज, दयानन्द और भारतीय अस्मिता पर कोई भी आक्रमण करता है, उसको अनुचित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करता है तो सभा सप्रमाण यथासमय उसका उत्तर देती है । सभा को विद्वानों का सहयोग प्राप्त है, वे पूर्ण विद्वत्ता से और योग्यता से आक्षेपों का निराकरण करते हैं और बलपूर्वक सत्य की स्थापना करते हैं ।

    प्रो० राजेन्द्र जिज्ञासु जी की पुस्तक इस कार्य का अद्यतन रूप है । पं० रामचन्द्र जी, जो एक स्वाध्यायशील और कर्मठ विद्वान् हैं, उनकी दृष्टि में भारतीय साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक ‘पं० श्रद्धाराम फिलौरी’ आई। उन्होंने उसे पढ़ा और सभा तथा पं० जिज्ञासु जी को अवगत कराया, साथ ही एक प्रति करके पं० राजेन्द्र जिज्ञासु जी को प्रेषित कर दी । पण्डित जी ने सभा से विचार-विमर्श करके इसका उत्तर देना निश्चित किया । उत्तर लिखने के लिए दृष्टि और स्मृति के धनी पं० राजेन्द्र जिज्ञासु जी के अतिरिक्त आज आर्यजगत् में दूसरा कौन हो सकता है ? आज समाज में वे वयोवृद्ध विद्वान् हैं, उनकी दृष्टि से लगभग एक शताब्दी का इतिहास घटित हुआ है। दूसरी विशेषता है- पण्डित जी की स्मृति प्रारम्भ से बहुत अच्छी है, जिसके कारण पढ़ी और सुनी गई बातें उन्हें बहुत अधिक उपस्थित हैं, जो सन्दर्भ का काम करती हैं। तीसरी बात – उनका कार्य करने का उत्साह है, जो इस आयु में इतने परिश्रम पूर्ण कार्य करने में संकोच नहीं करते । शरीर भले ही शिथिल हो, चाहे दृष्टि मन्द हो, परन्तु उत्साह में कोई कमी नहीं । एक नवयुवक जैसा उत्साह उनमें हम सदा पाते हैं। उनकी ऋषि दयानन्द, लेखराम, श्रद्धानन्द आदि विद्वानों के प्रति निष्ठा अतिशयता को प्राप्त है। उनकी लेखनी से यह पुस्तक लिखी गई है ।

    साहित्य अकादमी के लेखक ने जिन असत्य काल्पनिक बातों को पं० श्रद्धाराम के व्यक्तित्व को बढ़ा-चढ़ाकर बताने के लिए पुस्तक में लिखा है, जिज्ञासु जी ने प्रमाणों के साथ उनकी असत्यता को सिद्ध कर दिया है और राजेन्द्र टोकी द्वारा लिखित इस पुस्तक की प्रामाणिकता को सन्दिग्ध बना दिया। यहाँ हम साहित्य अकादमी से भी कहना चाहेंगे कि किसी की निन्दा से किसी की स्तुति कराने का प्रयास लेखक के साथ प्रकाशक की विश्वसनीयता को भी सन्दिग्ध बना देता है ।

    जहाँ इस पुस्तक से इतिहास के वास्तविक स्वरूप की रक्षा हो सकेगी, वहीं अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तक के प्रकाशक और लेखक को अपनी भूल सुधारने का अवसर भी मिलेगा ।

    सभा को अपने कर्त्तव्य-पालन का अवसर निज विद्वानों ने और प्रकाशन में सहयोग करने वालों ने दिया, सभा सभी का धन्यवादी ज्ञापित करती है ।

    धर्मवीर

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  • इस संस्करण के संबंध में !!!                                                                                           परोपकारिणी सभा अजमेर में महर्षि दयानंद सरस्वती के प्राय: सभी ग्रंथों की मूल प्रतियां है,  इनमें से सत्यार्थ प्रकाश की दो प्रतियां है, इनके नाम “मूलप्रति” तथा “मुद्रणप्रति” रखे हुए हैं, मूलप्रति से  मुद्रणप्रति तैयार की गई थी, मुद्रणप्रति (प्रेस कापी) के आधार पर सन १८८४  इसवी  में           सत्यार्थप्रकाश  का द्वितीय संस्करण छपा था, इतने लंबे अंतराल में  विभिन्न संशोधकों  के हाथों इतने संशोधन, परिवर्तन तथा परिवर्धन हो गए कि मूलपाठ का निश्चय करना कठिन होने लग गया था, मूल प्रति से मुद्रण प्रति लिखने वाले महर्षि के लेखक तथा प्रतिलिपिकर्ता  ने सर्वप्रथम यह फेरबदल की थी, महर्षि अन्य लोकोपकारक  कार्यों में व्यस्त रहने से तथा लेखक पर विश्वास करने से मुद्रणप्रति को मूलप्रति से अक्षरश: से नहीं मिला सके, परिणामत: लेखक नें  प्रतिलिपि करते समय अनेक  स्थलों  पर मूल पंक्तियां छोड़कर उनके आशय के आधार पर अपने शब्दों में महर्षि  का भाव अभिव्यक्त कर दिया,  अनेक स्थानों पर भूल से भी पंक्तियां छूट गई तथा अनेक पंक्तियां दोबारा भी लिखी गई, अनेकत्र  मूल शब्द के स्थान पर पर्यायवाची शब्द भी लिख दिए थे मुंशी समर्थदान  नें भी  पुनरावृति समझकर 13 वें 14 वें  समुल्लास की अनेक आयतें और समीक्षाएं काट दि , यह सब करना महर्षि दयानंद सरस्वती के अभिप्राय से   विरुद्ध होता चला गया,

    परोपकारिणी सभा के अतिरिक्त अन्य प्रकाशको के पास यह सुविधा कभी नहीं रही कि वे  मूलप्रति से मिलान करके महर्षि के सभी ग्रंथों का शुद्धतम पाठ प्रकाशित कर सकें परोपकारिणी सभा की ओर से भी कभी-कभी एक मुद्रणप्रति (प्रेस कापी) से ही मिलान करके प्रकाशन किया जाता रहा मूलप्रति की ओर  विशेष दृष्टिपात नहीं किया गया (किंतु किसी किसी ने कहीं-कहीं पाठ देखकर सामान्य  परिवर्तन किए हैं) और न कभी यह संदेह  हुआ कि दोनों प्रतियों में कोई मूलभूत पर्याप्त अंतर भी हो सकता है,

    गत अनेक शताब्दियों में ऋषि मुनिकृत ग्रंथों में विभिन्न  मतावलम्बियों ने अपने -अपने संप्रदाय के पुष्टियुक्त वचन बना बनाकर प्रक्षिप्त कर दिए हैं इसके परिणामस्वरुप मनुस्मृति,  ब्राह्मणग्रंथ, रामायण, महाभारत, श्रोतसूत्र और गृहसूत्र आदि ग्रंथों में वेददि  शास्त्रों की मान्यताओं के विपरीत भी लेख देखने को मिलते हैं इसी संभावना का भय  है महर्षि दयानंद सरस्वती के ग्रंथों में भी दृष्टिगोचर होने लगा था इस भय के  निवारणार्थ परोपकारिणी  सभा ने निश्चय किया कि महर्षि के हस्तलेखों से   मिलान करके सत्यार्थ प्रकाश आदि  सभी ग्रंथों का शुद्ध संस्करण निकाला जाए इसीलिए अनेक विद्वानों के सहयोग और   सत्परामार्श  के पश्चात संस्करण में निम्नलिखित मापदंड अपनाए गए हैं—

    1. मूले मूलाभावादमूलं मूलम् ( सांख्य १.६७ ) कारण का कारण और मूल का मूल नहीं हुआ करता, इसलिए सबका मूलकारण होने से सत्यार्थप्रकाश की मूलप्रति स्वत: प्रमाण है

    2. मुद्रणप्रति जहां तक मूलप्रति के अनुकूल है, वहां तक उसका पाठ मान्य किया है, प्रतिलिपिकर्ता  द्वारा श्रद्धा अथवा  भावुकतावश बढ़ाये  गए अनावश्यक और अनार्ष  वाक्यों को अमान्य किया है

    3. जहां मुद्रणप्रति में मूलप्रति  से गलत  पाठ उतारा और महर्षि उसमें  यथामति  संशोधन करने का यत्न किया, ऐसी स्थिति में  मूलप्रति  का पाठ   उससे अच्छा होने से उसे स्वीकार किया गया है

    4.मुद्रण प्रति में महर्षि जी ने जहाँ-जहाँ सव्ह्स्त  से आवश्यक परिवर्तन परिवर्तन किए हैं वे सभी स्वीकार किए हैं

    5. सन १८८३ से १८८४ तक प्रकाशित हुए  सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय संस्करण में प्रूफ देखते समय   मुद्रणप्रति के पाठ से हटकर जो  परिवर्तन-परिवर्धन  किए गए थे वे  भी प्राय: सभी अपनाएं हैं

    कुछ विद्वान महर्षि की भाषा में वर्तमान समय अनुकूल परिवर्तन करने का तथा  भाव को स्पष्ट करने के लिए कुछ शब्द बढ़ा  देने का व्यर्थ आग्रह किया करते हैं यह अनुचित है अतः इस संस्करण में ऐसा कुछ नहीं किया गया है

    इस प्रकार इस ग्रंथ को शुद्धतम  प्रकाशित करने के लिए विशेष यत्न किया गया है पुनरपि अनवधानतावश वस्तुतः  कोई त्रुटि रह गई हो तो शुद्धभाव से सूचित करने पर आगामी आवर्ती में उसे शुद्ध कर दिया जाएगा क्योंकि ऐसे कार्यों में दुराग्रह और  अभिमान के छोड़ने से ही सत्यमत गृहित  हो सकता है इसी में विद्वता  की शोभा भी  है

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  • श्रीमत परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री 108 श्री स्वामी दयानंद सरस्वती कृत श्रीमती परोपकारिणी सभा सम्बन्धी स्वीकारपत्र

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  • हैदराबाद सत्याग्रह के फिल्ड मार्शल  लौहपुरुष स्वामी स्वतन्त्रानंद जी जीवन-चरित एवं विचार-दर्शन

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