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Category: स्वामी विद्यानंद सरस्वती

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  • मानव जीवन का अन्तिम ध्येय ऐहिक जीवन की सुख-सुविधाओं के जनक उपकरणों की उपलब्धि एवं उनका समुचित उपयोग करते हुए मोक्षलाभ करना है। द्रव्यादि पदार्थ हमारी सुख सुविधा के जनक हैं, किन्तु अपने स्वरुप में वे क्षणभंगुर अर्थात् नश्वर हैं। एक आत्मतत्व ही अविनाशी हैं। इस वास्तविकता को समझ लेने के पश्चात् मनुष्य देह और उसकी वासनाओं में सदा के लिए लिप्त न होकर जन्म जन्मान्तर के रूप में आवर्तमान चक्र से निकलने की सोचने लगता है। यही ज्ञान मनुष्य को मोक्षमार्ग में प्रवृत्त करता है । यही आध्यात्म है ।

    वैदिक धर्म शरीर और आत्मा के अन्तर को स्पष्ट कर आत्मा को मुख्य और शरीर को गौण बताता है। जब मनुष्य यह जान लेता है कि मनुष्य का शरीर उस पिंजरे के समान है जिसमें जीवात्मा के रुप में एक तोता बैठा है तो संसार को देखने का उसका दृष्टिकोण बदल जाता है । आज का मनुष्य आत्मा की चिन्ता न करके पिंजरे को सजाने में लगा हुआ है। उसमें रहने वाले तोते की वह परवाह नहीं करता। पिंजरे को सजाना कोई बुरी बात नहीं परन्तु उसमें बन्द तोता यदि अधमरा है तो पिंजरे की सुन्दरता किस काम की ? संसार को सुन्दर बनाओ पर मानवता को खोकर नहीं । शरीर को सुख दो, पर आत्मा की हत्या करके नहीं ।

    जीवन का ध्येय अन्ततः अभौतिक अथवा आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक जीवन के मूलतत्व हैं—- ईश्वर की सत्ता और उसकी व्यापकता में विश्वास, संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान, त्यागपूर्वक भोग, निष्काम कर्म तथा आत्मा के प्रतिकूल कार्य न करना । इन्हीं पाँच बिन्दुओं पर इस पुस्तक में विचार किया गया है ।

    श्री आदित्यप्रकाश आर्य ने अपनी सुपुत्री की स्मृति में स्थापित, अनीता आर्ष प्रकाशन से इसे प्रकाशित किया है । एतदर्थ उन्हें धन्यवाद व आशीर्वाद ।

    विद्यानन्द सरस्वती 11

    Sold By : The Rishi Mission Trust
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