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Vedic Nitya Karma and Pancha Mahayagya Vidhi
Rs.300.00Sold By : The Rishi Mission Trustप्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन इसी भावना से किया जा रहा है कि आज के मनुष्य आध्यात्मिकता के महत्त्व को समझें, उसकी ओर प्रवृत्त हों, वैदिक नित्यकर्मों तथा पञ्चमहायज्ञों का प्रचार-प्रसार हो और सभी इनका अनुष्ठान करें और अनुष्ठान के इच्छुक व्यक्तियों को उनकी विधि सरल- सुबोध रूप में उपलब्ध हो सके।
प्रस्तुत पुस्तक की उपादेयता
पाठकों के मन में प्रश्न उठ सकता है कि यज्ञीय विधि सम्बन्धी अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हैं, फिर इस पुस्तक की क्या आवश्यकता है ? इसके उत्तर में मेरा विनम्र निवेदन यह है कि मैंने अपने जीवन में यज्ञानुष्ठान करते समय, यज्ञीय विधियों की पुस्तकों पर मनन करते समय, कुछ ऐसी शंकाओं के समाधान का अभाव पाया, जो एक यज्ञकर्त्ता के मन में उठती रहती हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन करके मैंने उन अभावों को दूर करने का प्रयास किया है। संक्षेप में इस पुस्तक की विशेषताओं को इस प्रकार रखा जा सकता है – –
१. यह पुस्तक महर्षि दयानन्द कृत संस्कारविधि तथा पञ्चमहायज्ञविधि पर आधारित है। इसमें महर्षि की विधियों एवं मान्यताओं की पुष्टि की गयी है ।
२. इसमें सभी यज्ञीय विधियों एवं क्रियाओं को सरल एवं सुबोध शैली में स्पष्ट किया गया है। उठने से लेकर शयन तक की पूर्ण नित्यचर्या मन्त्रार्थ सहित दी गयी है ।
३. उपासकों याज्ञिकों के लिए यह आवश्यक है कि वे मन्त्रोच्चारण के साथ-साथ मन्त्रों का अर्थ चिन्तन भी करें तभी सन्ध्याउपासना तथा अग्निहोत्रादि के अनुष्ठान का पूर्ण फल प्राप्त हो सकता है, किन्तु बाजार में ऐसी कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं है, जिसमें मन्त्रों का पदार्थ दिया गया हो। यह पुस्तक उस अभाव की पूर्ति करेगी और याज्ञिक जन इसकी सहायता से अर्थ चिन्तनपूर्वक मन्त्रोच्चारण कर सकेंगे। इसमें एक-एक मन्त्रंपद का पृथक्-पृथक् स्पष्ट अर्थ दिया गया है ।
४. शास्त्रों में भी यह आदेश है और व्यवहार में भी यह कहा जाता है कि उपासकों को अर्थपूर्वक मन्त्रों का चिन्तन अथवा उच्चारण करना चाहिए। यह तभी हो सकता है जब मन्त्रपदों के अनुसार अर्थ ज्ञात हो । प्रायः व्याख्याकारों ने शब्दों और पंक्तियों को आगे-पीछे करके अर्थ किये हैं। ऐसे अर्थों का मन्त्र के पदों के क्रम से चिन्तन नहीं हो सकता । इस पुस्तक में, मन्त्र के पदों के क्रम से ही अर्थ करने का प्रयास किया गया है, जिससे उपासक मन्त्रोच्चारण क्रम से अर्थचिन्तन कर सकें ।
५. प्रायः व्याख्याकारों ने यज्ञीय मन्त्रों की व्याख्या पृथक्-पृथक् की है। पाठक यह समझ नहीं पाता कि अर्थ का यह अन्तर किस कारण से है और इन अर्थों का क्या आधार है । इस पुस्तक में जो भी अर्थ किये गये हैं, उसकी पुष्टि में व्याकरण, निरुक्त, ब्राह्मण ग्रन्थों, वेदों तथा महर्षि दयानन्द के प्रमाण दिये गये हैं। इस प्रकार पाठकों को प्रामाणिक अर्थ एवं व्याख्या देने का एक विनम्र प्रयास है । इस प्रकार यह अल्पशिक्षितों तथा उच्चशिक्षितों, दोनों वर्गों के लिए उपयोगी है।
६. मन्त्रों में आये विशिष्ट पदों, विचारणीय स्थलों पर टिप्पणी में प्रमाणपूर्वक, स्पष्ट समीक्षा दी गयी है । आवश्यक स्थलों – पर विशेष कथन देकर प्रतिपाद्य को स्पष्ट किया गया है । ७. यज्ञ सम्बन्धी बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनका स्पष्टीकरण यज्ञीय विधि-पुस्तकों में नहीं मिलता, जैसे- महर्षि दयानन्द द्वारा विहित न्यून-से-न्यून एक घण्टा तक सन्ध्या कैसे की जा सकती है ? दीर्घयज्ञ की विधि क्या है ? न्यून-सेन्यून सोलह आहुतियाँ कौन-सी हैं ? एक काल के यज्ञ की विधि क्या है ? आदि शंकाओं का टिप्पणी में स्पष्टीकरण दिया गया है । ८. अन्त में यज्ञादि धार्मिक अवसरों पर गाये जानेवाले भक्तिगीतों, प्रार्थनाओं का पर्याप्त संग्रह है।
९. पुस्तक में स्थूलाक्षर टाइप का प्रयोग किया गया है, जिससे आबाल-वृद्ध सभी बिना कठिनाई के पढ़ सकें
१०. अधिक उपयोगी संस्करण – प्रस्तुत संस्करण को और अधिक उपयोगी बनाया गया है। इसमें, लोकव्यवहार में प्रचलित प्रमुख संस्कारों, सामाजिक प्रथाओं और आर्यपर्वों के अनुष्ठान की विधियाँ भी दे दी गयी हैं। अब आप इस एक ही पुस्तक से अनेक अनुष्ठान सम्पन्न कर सकते हैं।
११. पुरोहितों के लिए विशेष उपयोगी – बहुप्रचलित प्रायः सभी अनुष्ठान इस पुस्तक में एकत्र होने से यह पुरोहितों के लिए में विशेष उपयोगी एवं सुविधाजनक है।
– आचार्य सत्यानन्द ‘नैष्ठिक’
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पातञ्जलयोगप्रदीप श्री स्वामी ओमानंद तीर्थ patanjalyogpradeep
Rs.250.00Sold By : The Rishi Mission Trustपूज्य श्री स्वामी जी महाराज ने योग के यथार्थ रहस्य तथा स्वरूप को मनुष्य मात्र के हृदयङ्गम कराने के लिये ‘पातञ्जलयोगप्रदीप’ नामक पुस्तक लिखी थी। उसका प्रथम संस्करण अनेक वर्षों से अप्राप्य हो रहा था। अब उसकी द्वितीयावृत्ति ‘आर्य-साहित्य मण्डल’ द्वारा छपकर पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है । इस बार श्री स्वामी जी महाराज ने इसमें अनेक विषय बढ़ा दिये हैं और योग सम्बन्धी अनेक चित्रों का समावेश किया है। इससे ग्रन्थ प्रथम संस्करण की अपेक्षा लगभग दुगुना हो गया है । इस ग्रन्थ में योगदर्शन, व्यासभाष्य, भोजवृत्ति और कहीं कहीं योगवार्तिक का भी भाषानुवाद दिया है। योग के अनेक रहस्य – योग सम्बन्धी विविध ग्रन्थों और स्वानुभव के आधार पर भली प्रकार खोले हैं, जिससे योग में नये प्रवेश करने वाले अनेक भूलों से बच जाते हैं। श्री स्वामी जी ने इसकी ‘षड्दर्शन-समन्वय’ नाम्नी भूमिका में मीमांसा आदि छहों दर्शनों का समन्वय बड़े सुन्दर रूप से किया है । महर्षि दयानन्द सरस्वती को छोड़कर अर्वाचीन आचार्य तथा विद्वान् छहों दर्शनों में परस्पर विरोध मानते हैं, किंतु श्री स्वामी जी महाराजने प्रबल प्रमाणों तथा युक्तियों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि दर्शनों में परस्पर विरोध नहीं है। श्री स्वामी जी महाराज इस प्रयास में पूर्ण सफल हुए हैं तथा कपिल और कणाद ऋषि का अनीश्वरवादी न होना, मीमांसा में पशु-बलिका निषेध, द्वैत-अद्वैत का भेद, सृष्टि उत्पत्ति, बन्ध और मोक्ष, वेदान्त-दर्शन अन्य दर्शनों का खण्डन नहीं करता, सांख्य और योग की एकता आदि कई विवादास्पद विषयों का विवेचन स्वामी जी महाराज ने बड़े सुन्दर ढंग से किया है, इसके लिये स्वामी जी महाराज अत्यन्त धन्यवाद के पात्र हैं। दर्शनों और उपनिषद् आदिमें समन्वय दिखलाने और योग सम्बन्धी तथा अन्य कई आध्यात्मिक रहस्यपूर्ण विषयों को साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित होकर अनुभूति, युक्ति, श्रुति तथा आर्ष ग्रन्थों के आधार पर खोलते हुए स्वामी जी ने अपने स्वतन्त्र विचारों को प्रकट किया है । अतः इन विचारों का उत्तरदायित्व श्री स्वामी जी महाराज पर ही समझना चाहिये न कि आर्य साहित्य-मण्डलपर । पुस्तक को अधिक उपयोगी बनाने के उद्देश्य से स्वामी जी के आदेशानुसार यथोचित
स्थानों में चित्र भी दिये गये हैं। कुछ आसनों के चित्र पं० भद्रसेनजी के यौगिक व्यायाम-संघ के ब्लाकों से लिये गये हैं। जिनके लिये पं० भद्रसेन जी मण्डल की ओर से धन्यवाद के पात्र हैं।
यह इस पुस्तक का तृतीय संस्करण है जो गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित हुआ है।
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नाडी तत्व दर्शनम nadi tatva darshanm
Rs.350.00Sold By : The Rishi Mission Trustग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय
भारतीय आयुर्विज्ञान के अङ्गों में नाडी द्वारा रोगपरीक्षण प्रत्यन्त प्राचीन और चमत्कार पूर्ण तथ्य है। आयुर्वेद की चिकित्सा का यह मूल प्राधार है। प्राधुनिक विज्ञान जहां इस रहस्यमय विज्ञान से चकित एवं चमत्कृत होता है; वहां हमारे आधुनिक वैद्यबन्धु भी इस गम्भीर रहस्य से अनभिज्ञ होते जा रहे हैं। इस विषय की जो दो-चार छोटी-मोटी पुस्तकें मिलती हैं, वे उपपत्ति, तर्क, प्रमाण और युक्ति हीन सी प्रतीत होती हैं। आजकल यह अत्यन्त गम्भीर अत एव रहस्यपूर्ण विज्ञान केवल परम्परा के आधार पर ही जीवित रह गया है।
में आयुर्वेद के त्रिदोष सिद्धान्त पर व्यवस्थित नाडी- विज्ञान के गूढतम रहस्य का अनुसन्धान इस विज्ञान युग में अत्यावश्यक ही नहीं; अनिवार्य भी हो गया है। अन्यथा कुछ दिनों में यह रहस्य अनन्त के गर्भ में विलीन हो जायेगा । हर्ष का विषय है कि इस जटिल, दुरूह तथा अतिगम्भीर विषय को लेकर प्रखर प्रतिभासम्पन्न गवेषक विद्वान् वैद्य ने पांच वर्षों के निरन्तर अनुसन्धान एवं कठोर तपस्या द्वारा इस रहस्य के उद्घाटन में अधिकाधिक सफलता प्राप्त की है ।
गवेषक-विद्वान् लेखक ने इस अनुसन्धान को चरम सीमा तक पहुंचा दिया है जो दूतधरा विज्ञान के नाम से उल्लिखित है। इस विज्ञान द्वारा दूरदेश स्थित रोगी के रोग का निदान उसके दूत की नाडी द्वारा करने की सफल प्रक्रिया प्रदर्शित की है । लेखकने इसके शताधिक प्रयोग किये हैं और अनेक छात्रों को तैयार किया है । अनेक प्रसिद्ध वैद्यों, उच्च अधिकारियों एवं नागरिकोंने दूतधरा द्वारा चिकित्सा कराकर सफलता प्राप्त की है और प्रमाणपत्र दिये हैं ।
इसके अतिरिक्त पुस्तकमें सबसे प्रथम त्रिदोष सिद्धान्तका सप्रमाण विवेचन किया गया है जो भारतीय आयुर्वेद-सिद्धान्त का मूल आधार है । उसके अतिरिक्त पञ्चभूतों दोषों और मलों का विवेचन करते हुये चरक एवं सुश्रुत की अनेक पंक्तियों की रहस्यपूर्ण वैज्ञानिक व्याख्या भी विद्वान् वैद्यों एवं वैद्य-विद्यास्नातकोंके मननकी महान् वस्तु है । पुस्तक की एक एक बात सप्रमाण है, जो अनुसन्धानका मूल आधार है । वेद, ब्राह्मण, उपनिषद्, चरक, सुश्रुत तथा काश्यप संहिता आदि ग्रन्थों के अतिरिक्त किसी भी अनार्ष ग्रन्थ का प्रमाण के रूपमें नामोल्लेख इसमें नहीं है। आयुर्वेद की अनेक रहस्यमय गुत्थियों को सरलता से सप्रमाण सुलझाया गया है । 3
नाडी- विषयक अनुसन्धान करने के अनन्तर विद्वान् लेखक ने रावणकृत ‘नाडी- विवृति’ की युक्तियुक्त व्याख्या करते हुए कणाद नाडी, बसवराजीय-नाडी तथा नाडी- सम्बन्धी सभी उपलब्ध श्लोकों की यथावसर युक्ति पूर्ण व्याख्या कर दी है। सारांश यह कि लेखक ने नाडी- ज्ञान सम्बन्धी सर्वविध अन्धकारको दूर करने एवं आधुनिक विज्ञान का तर्कपूर्ण समाधान करने में पर्याप्त सफलता प्राप्त की है ।
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दयानंद ग्रन्थमाला 1-3 Dayanand granthamala 1-3
Rs.750.00Sold By : The Rishi Mission Trustदयानंद ग्रंथ माला भाग-1 ग्रन्थ सूची
सत्यार्थ प्रकाश
स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश
भाग-२ ग्रन्थ सूची
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
भागवत खण्डनम्
पञ्चमहायज्ञविधि:
वेदभाष्य के नमूने का अंक
वेदविरुद्धमतखण्डनम्
वेदान्ति- ध्वान्त-निवारणम् शिक्षापत्री – ध्वान्त- निवारणम्
( स्वामिनारायण मत खण्डन)
आर्याभिविनयः
आर्योद्देश्यरत्नमाला
भ्रान्ति निवारण
जन्मचरित्
जन्मचरित्र के नमूने के अंकदयानन्द ग्रन्थमाला
(भाग-३) ग्रन्थ- सूची –
संस्कारविधिः
संस्कृतवाक्यप्रबोधः
व्यवहारभानु
भ्रमोच्छेदन
अनुभ्रमोच्छेदन
गोकरुणानिधि
काशीशास्त्रार्थ:
हुगली – शास्त्रार्थ
सत्यधर्म्मविचार:
शास्त्रार्थ- जालन्धर
शास्त्रार्थ – बरेली
शास्त्रार्थ उदयपुर
शास्त्रार्थ- अजमेर
उपदेश मञ्जरी
शास्त्रार्थ मसूदा
कलकत्ता- शास्त्रार्थ
आर्यसमाज के नियम ( बम्बई)
आर्यसमाज के नियमोपनियम
स्वीकारपत्र
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51 अनमोल कहानियां Anmol kahaniyan
Rs.195.00Sold By : The Rishi Mission Trustप्रेमचन्द युग-प्रवर्तक लेखक थे। सन् 1901 से 1936 तक का समय हिन्दी-उर्दू कथा – साहित्य का युग कहलाता है और कहलाता रहेगा। उस समय राजनीति में और समाज-सुधार के आन्दोलन में मनुष्य से विचारशील और कर्मशील बनने और रूढ़िगत परम्पराओं और अन्धविश्वासों को त्यागकर आगे बढ़ने की माँग की जा रही थी। प्रेमचन्द ने इस माँग को पूरा किया। हमें प्रेमचन्द में शहरी, कस्बाई और ठेठ देहाती जीवन के सजीव चित्र मिलते हैं। इस सबसे प्रेमचन्द की शैली के विभिन्न रूप-रंगों और भाषा-ज्ञान पर प्रकाश पड़ता है और इस महान् लेखक के सामर्थ्य पर आश्चर्य भी होता है। इस संकलन में उनकी पूस की रात, पंच परमेश्वर, मंत्र, कफन, शतरंज के खिलाड़ी, सद्गति, ठाकुर का कुआँ सरीखी कालजयी 51 अनमोल कहानियाँ संग्रहित हैं।
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उपनिषद प्रकाश upnishad Prakash
Rs.350.00Sold By : The Rishi Mission Trustभौतिक विज्ञान का अधूरापन
कहते हैं आज विज्ञान का युग है। सच में विज्ञान ने कितने ही आश्चर्यजनक आविष्कार कर डाले हैं। परन्तु विज्ञान भी अभी तक माया में ही उलझा पड़ा है और मनुष्य की एक भी समस्या को सुलझा नहीं पाया। आजकल का विज्ञान केवल भौतिक है। जड़ के ही कीचड़ में फंसा पड़ा है। और मनुष्य केवल जड़ नहीं। केवल पत्थर का टुकड़ा नहीं । इसमें एक छोड़, दो आत्माओं का निवास है। एक समस्त संसार को चलाने वाला परमात्मा और दूसरा इस शरीर का अधिष्ठाता जीवात्मा । ये दोनों ही आत्मा चेतन हैं । इसलिए जब तक माया और आत्मा दोनों की सम्मिलित खोज न होगी तब तक विज्ञान अधूरा और असफल रहेगा।
1 निस्सन्देह विज्ञान की भौतिक विजयें श्लाघनीय हैं । सूर्य में कितनी गरमी है, साढ़े नौ करोड़ मील दूर रहते भी यह पृथिवी को झुलसे डालता है। पर विज्ञान की सहायता से मनुष्य ने सूर्य से बचने के लिये आतप-शान्त (Sun Proof) साधन निर्माण कर लिये, बिना अग्नि जलाये सूर्य से अपना भोजन बनवाता है । जिस जल में दावानल को अबल करने का बल है, उस जल को कल बना मनुष्य नल में ले आया है। आग जंगल के जंगल भस्मसात् कर देती है, वही आग विज्ञान के वशवर्ती हो मनुष्य का भोजन पकाती है, कपड़ा बुनती है, चक्की पीसती है और जाने कितनी सेवायें मनुष्य की करती है। विद्युत् को तार में बांधकर मनुष्य समुद्र पार सन्देश भेजता है, घरों में प्रकाश करता है। इससे दूरस्थ के गाने सुनता है। सभी जीवनोपयोगी कार्य इसी से लेता है । विज्ञान की शक्ति से ये सारे बलवान् भूत मनुष्य के आज्ञापालक दास बने हुए हैं ।
पर हम भूलें नहीं कि केवल प्रकृति या माया का ज्ञान उलझनें बढ़ा तो देगा, सुलझा एक भी नहीं सकेगा। कहीं इतनी वर्षा होती
है कि विनाश जाग उठता है, कहीं-कहीं इतना सूखा कि मनुष्य पानी की बूंद को तरसने लगे, कहीं इतना पानी कि ग्राम के ग्राम, खेतों के खेत डूब जायें अर्थात् इन वस्तुओं पर भी विज्ञान का अधिकार नहीं।और फिर जहां ये समस्यायें नहीं वहां विज्ञान के सुन्दर आविष्कारों के होते हुए भी मनुष्य दुःखी है। एक क्षण के लिए भी उसे सुख नहीं। कहीं भय है, कहीं घृणा, कहीं युद्ध की तैयारियां हैं, कहीं भयंकर शस्त्रों के आविष्कार ! ऐसा प्रतीत होता है कि जिस विज्ञान को मनुष्य ने रक्षा के लिए अपना सहायक बनाया था वही उसे सर्वनाश की ओर ले जा रहा है। कोई भी समस्या उससे सुलझ नहीं पाती। नित नई समस्या को उत्पन्न अवश्य कर देता है । विज्ञान के चरम विकास की स्थिति में जब मनुष्य चन्द्रमा तक में निवास करने को तैयार बैठा है, मनुष्य की शान्ति उससे दूर ही बनी है। प्रश्न है क्यों? महाकवि पन्त के शब्दों में हम कहना चाहेंगे। S चरमोन्नत जग में जब कि आज विज्ञान ज्ञान ।
बहु भौतिक साधन, यन्त्र-यान वैभव महान् ॥ प्रस्तुत हैं विद्युत् वाष्पशक्ति, धनबल नितान्त । फिर क्यों जग में उत्पीड़न, जीवन क्यों अशान्त ? मानव ने पाई देश-काल पर जय निश्चय । मानव के पास न पर मानव का आज हृदय! चाहिये विश्व को आज भाव का नवोन्मेष ।
sma मानव उर में फिर मानवता का हो प्रवेश !! महाकवि ने समस्या के साथ ही उसका समाधान भी देने का यत्न किया है। सच में विज्ञान की यह चरमोन्नति मनुष्य के सामने एक बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न बनकर खड़ी है। प्रश्न है क्यों नहीं सुलझती समस्या? क्यों नहीं मनुष्य को सुख मिलता? इसलिए कि यह विज्ञान अधूरा है, केवल जड़पदार्थ के पीछे लगा है । इस प्रकृति में छिपी वास्तविक शक्ति को उसने समझा नहीं, फिर ये सारी उलझनें और भेद कैसे खुलेंगे ? उत्तर यह है कि जब प्रकृति और ज आत्मा दोनों को साथ रखकर खोज होगी । इसी को अध्यात्मज्ञान या आत्मज्ञान कहते हैं ।
हमारी धारणा यह है कि अध्यात्मवाद में निश्चितरूपेण लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार की उलझनों के समाधान की पूर्ण शक्ति विद्यमान है। चोरी को, भ्रष्टाचार को, अनाचार, अत्याचार और व्यभिचार को अध्यात्मवाद ही दूर कर सकता है, कोई राजनैतिक दल या शक्तिशाली राज्यप्रणाली दूर नहीं कर सकती। उपनिषद् काल में जब अध्यात्मवाद का प्रचार था तब लोगों के चरित्र बहुत ऊंचे थे। आपको एक कथा से विषय सुस्पष्ट हो सकेगा।
विदुर जी महाराज आज से लगभग ५ सहस्र वर्ष पूर्व संसार भर में घूमकर स्यात इसी देहली में महाराज धृतराष्ट्र के पास पहुंचे तो महाराज ने कहा, “विदुर जी ! सारा संसार घूमकर आये हैं आप, कहां-कहां पर क्या देखा आपने ? ”
विदुर जी बोले, “राजन् कितनी आश्चर्य की बात देखी है मैंने, सारा संसार लोभ की श्रृंखलाओं में फंस गया है। लोभ, क्रोध, भय के कारण उसे कुछ भी नहीं दिखाई देता, पागल हो गया है । आत्मा को वह जानता नहीं।”
तब एक कथा उन्होंने सुनाई। एक वन था बहुत भयानक, उसमें भूला भटका हुआ एक व्यक्ति जा पहुंचा। मार्ग उसे मिला नहीं । परन्तु उसने देखा कि वन में शेर, चीते, रींछ, हाथी और कितने ही पशु दहाड़ रहे हैं। भय से उसके हाथ-पांव कांपने लगे। बिना देखे वह भागने लगा। भागता – भागता एक स्थान पर पहुंच गया। वहां देखा कि पांच विषधर सर्प फन उठाये फुंकार रहे हैं। उनके पास ही एक वृद्ध स्त्री खड़ी है, महान् भयङ्कर, सांप इसकी ओर लपका तो वह फिर भागा और अन्त में हांफता हुआ एक गढ़े में जा गिरा जो घास और वृक्षों से ढका पड़ा था। सौभाग्य से एक बड़े वृक्ष की शाखा उसके हाथ में आ गई। उसको पकड़कर वह लटकने लगा, तभी उसने नीचे देखा कि एक कुंआ है और उसमें एक बहुत बड़ा सर्प – एक अजगर मुख खोले बैठा है। उसे देखकर वह कांप उठा, शाखा को दृढ़ता से पकड़ लिया कि गिरकर अजगर के मुंह में न जा पड़े । परन्तु ऊपर देखा तो उससे भी भयङ्कर दृश्य था । छः मुखवाला एक हाथी वृक्ष को झंझोड़ रहा था और जिस शाखा को उसने पकड़ रखा था उसे श्वेत और काले रंग के दो चूहे काट रहे थे । भय से उसका रंग पीला पड़ गया परन्तु तभी मधु की एक बूंद उसके होठों पर आ गिरी। उसने ऊपर देखा । वृक्ष के ऊपर वाले भाग में मधुमक्खियों का एक छत्ता लगा था, उसी से शनैः शनैः शहद की बूंद गिरती थी । इन बूंदों का स्वाद वह लेने लगा । इस बात को भूल गया कि नीचे अजगर है। इस बात को भी भूल गया कि जिस शाखा से वह लटका है उसे श्वेत और काले चूहे काट रहे हैं और इस बात को भी कि चारों ओर भयानक वन है उसमें भयंकर पशु चिंघाड़ रहे हैं ।
धृतराष्ट्र ने कथा को सुना तो कहा, “विदुर जी ! यह कौन से वन की बात कहते हैं? कौन है यह अभागा व्यक्ति जो इस भयानक वन में पहुंचकर संकट में फंस गया ?” ”
विदुर जी ने कहा, राजन् ! यह संसार ही वह वन है। मनुष्य ही वह अभागा व्यक्ति है। संसार में पहुंचते ही वह देखता है कि इस वन में, रोग, कष्ट और चिन्तारूपी पशु गर्ज रहे हैं। यहीं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहङ्कार के पांच विषधर सर्प फन फैलाये फुंकार रहे हैं। यहीं वह बूढ़ी स्त्री रहती है जिसे वृद्धावस्था कहते हैं और जो रूप तथा यौवन को समाप्त कर देती है। इनसे डरकर वह भागा, वह शाखा जिसे जीने की इच्छा कहते हैं हाथ में आ गई । इस शाखा से लटके-लटके उसने देखा कि नीचे मृत्यु का महासर्प मुंह खोले बैठा है । वह सर्प जिससे आज तक कोई भी नहीं बचा न राम न रावण न कोई राजा न महाराजा, न कोई धनवान् न कोई निर्धन, न मजदूर न पूंजीपति कोई भी कालरूपी सर्प से आज तक बचा नहीं और छह मुखवाला हाथी जो इस वृक्ष को झंझोड़ रहा था वह वर्ष है, छः ऋतु ही उसके मुख हैं। लगातार वह इस वृक्ष को झंझोड़ता रहता है और इसके साथ ही काले और श्वेत रंग के चूहे इस शाखा को तीव्रता से कुरेदते हैं ये रात और दिन हैं जो प्रतिदिन आयु को छोटा किये देते हैं । कवि की यह वाणी कितनी सार्थक है :
गाफिल तुझे घड़ियाल यह देता है मुनादी ।
गर्दू ने घड़ी उम्र की इक और घटा दी । और यह शहद की बूंद जो टपक रही थी वह है आशा और तृष्णा, जीने की आशा । “जीता रहूं, पीता रहूं” यह आशा है । इस अवस्था में लटक रहा है मनुष्य । कभी-कभी नीचे के सर्प और ऊपर के हाथी और चूहों को देखकर घबराता भी है।
जीवनरूपी शाखा कटती जाती है निरन्तर, और वन में दहाड़ रहे हैं पशु ! ऐसे व्यक्ति के लिए सुख कहां, शान्ति कहां?
बालाये आसमां नहीं, जेरे जमीं नहीं ।
राहत है जिसका नाम वह ऐ दिल कहीं नहीं ॥ शान्ति और सन्तोष कहीं दिखाई नहीं देता। यदि है तो बता दो । ऐसी अवस्था में मनुष्य पुकारता है, पूछता है कि मेरे बचाव का मार्ग है या नहीं ? उत्तर है कि मार्ग है कौन-सा मार्ग है ? और किस प्रकार मनुष्य विवश होकर पुकारता है उसे शंकराचार्य के शब्दों में सुनियेकथं तरेयं भवसिन्धुमेतं, का वा गतिर्फे कतमोऽस्त्युपायः । जाने न किञ्चित्कृपयाव मां भोः, संसारदुःखक्षतिमातनुष्ठ ॥
(वि०चू०)
मैं इस संसार – समुद्र को कैसे तरूंगा? मेरी क्या गति होगी? क्या इसका कोई उपाय है? मैं तो जानता नहीं । प्रभु तू ही मार्ग बता कि संसार के दुःखों से कैसे बच सकूंगा।
यह है उसकी पुकार ! यह पुकार उस भयानक जंगल में गूंजी तो आवाज आई
मा भैष्ट विद्वंस्तव नास्ति नाशः, संसारसिन्धोस्तरणेऽस्त्युपायः । येनैव याता यतयोऽस्य पारं, तमेव मार्गं तव निर्दिशामि ॥
अरे ओ दुःखी मनुष्य ! विनाश से भयभीत न हो । तेरा विनाश नहीं होगा, संसार से पार जाने का उपाय है । जिस मार्ग को अपनाकर यति लोग, योगी, सन्त और महात्मा लोग इस समुद्र से पार गये।
जब यह ध्वनि उसने सुनी तो चारों ओर आश्चर्य से देखा । आश्चर्य के साथ उसने सोचा क्या वस्तुतः कोई मार्ग है ?
निश्चितरूपेण ऐसा मार्ग है। यह है वेदानुमोदित उपनिषदों का अध्यात्मवाद।
अध्यात्मवाद क्या और क्यों ?
स्मरण रखिये कि इसके अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं । कुछ बालकबुद्धि लोग कहेंगे कि क्या आपका यह अध्यात्मवाद संसार की सभी समस्याओं को हल कर सकता है? क्या वह अन्न की कमी को पूर्ण कर सकता है ? इन शक्तियों को जो एक दूसरे का विनाश करने के लिए तुली बैठी हैं रोक सकता है? क्या इन गृद्धों को समाप्त कर सकता है जो हमारे देश की सीमाओं पर इस प्रतीक्षा में बैठे हैं कि कब यह विशाल भारत दुर्बल हो और कब उसे नोच-नोचकर खायें ? क्या वह आर्थिक समस्याओं को, मजदूर और पूंजीपति की समस्या को हल कर सकता है ? यदि नहीं कर सकता तो फिर यह संसार-सागर से पार कैसे ले जा सकता है ?
ऐसे भाइयों को, ऐसी बहनों और माताओं को हम दावे के साथ कहना चाहेंगे कि हां वेद और उपनिषदों का अध्यात्मवाद यह सब कुछ समाप्त कर सकता है। जो लोग यह समझते हैं कि वह ऐसा नहीं कर सकता वे यही नहीं समझ पाये कि अध्यात्मवाद है क्या ?
यह बात हम बड़े ही विश्वासपूर्ण हृदय से कहते हैं और उस इतिहास के आधार पर कहते हैं जो आज भी विद्यमान है। भारत में महाराज अश्वपति उस समय राज्य कर रहे थे। एक बहुत बड़ा वैश्वानर यज्ञ उसकी राजधानी में होने वाला था, पांच महानुभाव ब्रह्मज्ञान की खोज में राजा अश्वपति के पास पहुंचे। राजा ने उन्हें कहा कि आपको भी उतना ही फल मिलेगा, जितना दूसरे ऋषियों को मिलेगा । परन्तु ब्राह्मण ने धन लेने से इन्कार किया । तब महातेज अश्वपति ने सोचा होगा, इस अस्वीकृति से कि यह हो सकता है कि उन्होंने समझा होगा कि मैं राजा हूं । हर प्रकार का धन मेरे कोष में आता है। इसलिए ये ब्राह्मण और महात्मा मेरा दान नहीं लेते । इन्हें संदेह है कि यह धन अच्छे लोगों का कमाया हुआ नहीं। तभी आगे बढ़कर पूरे विश्वास के साथ उन्होंने कहा- सुनिये महात्मा गण !
आगे पुस्तक पढ़ें….
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द्रव्यगुण विज्ञान dravyaguna vigyan
Rs.325.00Sold By : The Rishi Mission Trustप्रस्तुत ग्रन्थ की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं—
• भारतीय केन्द्रीय चिकित्सा परिषद्, नई दिल्ली द्वारा निर्धारित द्रव्यगुण प्रथम भाग के नवीनतम संशोधित पाठ्यक्रम के अनुसार ही सभी प्रकरणों / अध्यायों का क्रमबद्ध वर्णन किया गया है ।
● नवीनतम पाठ्यक्रम में समाविष्ट आधुनिक औषधविज्ञान (Modern Pharmacology) के प्रकरणों को भी स्नातक स्तरीय छात्रों को ध्यान में रखते हुए सरल एवं सुबोधगम्य स्वरूप में प्रस्तुत किया गया है । (विदित हो कि आयुर्वेद स्नातकोत्तर अध्ययन काल के दौरान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आधुनिक औषधविज्ञान विषय भी पढ़ाया जाता है जिसके कारण मैं इसे लिखने का दुःसाहस कर सका)
पाठ्यक्रमानुसार ही ग्रन्थ को दो खण्डों (खण्ड-क एवं खण्ड-ख) में तथा पुनः खण्ड-ख को दो उपखण्डों में विभाजित किया गया है। खण्ड क के अन्तर्गत विषयों को २१ अध्यायों में विभक्त किया गया है जिनमें द्रव्यगुण, द्रव्य, द्रव्यों – द्रव्यगुणविज्ञान
) का मौलिक, रचनात्मक तथा कर्मात्मक वर्गीकरण (संहितानुसार), छ: मुख्य निघण्टुओं के परिचय सहित उनमें द्रव्यों के वर्गीकरण की शैली, गुण, रस, विपाक, वीर्य, प्रभाव, कर्म, चरकोक्त गणों के कर्म, मिश्रक वर्गीकरण, द्रव्यों का नामकरण व पर्याय का आधार देश विभाग, भूमिविभाग, द्रव्य संग्रहण एवं संरक्षण इत्यादि का पृथक् पृथक् अध्यायों में वर्णन किया गया है। खण्ड-ख के प्रथम उपखण्ड के विषयों को पाँच अध्यायों में विभक्त किया गया है जिनमें द्रव्यशोधन, अपमिश्रण, प्रतिनिधि द्रव्य, कृत्रिम द्रव्य, प्रशस्त भेषज, द्रव्यों का वैरोधिकत्व, औषध मात्रा का निर्धारण, अनुपान व्यवस्था, भैषज्य काल, भैषज्य प्रयोग मार्ग, औषध व्यवस्था पत्र लेखन, Plant extracts (Alkaloids, Glycosides, Flavonoids, Food additives, Excipients & Food colours आदि) का वर्णन किया गया है । खण्ड-ख के द्वितीय उपखण्ड में आधुनिक औषधविज्ञान ( Modern Pharmacology) के सामान्य सिद्धान्तों तथा औषधियों के विभिन्न गणों को ३९ अध्यायों में विभक्त किया गया है जिनमें Anaesthetics, CNS depressants, Sedatives, Hypnotics, Tranquilisers, Antipyretics, Analgesics, Antiepileptics, Antihypertensive, Antianginal, Antiplatelet, Hypolipidaemic, Haemopoetic, Coagulants, Bronchodialators, Aerosols/Inhalants, Expectorants, Digestants, Carminatives, Antacids, Antiulcer, Laxatives, Antidiarrhoeals, Antiemetics, Hepatoprotective, Diuretic, Antidiuretic, Lithotriptic, Antiinflammatory, Hormonal therapy, Antiobesity, Antidiabetics, Antithyroid, Oxytocic, Galactagogues, Contraceptives, Styptics, Antihistamines, Antimicrobial, Antibiotics, Antimalarial, Amoebicidal, Antifilarial, Anthelmentic, Antifungal, Vitamins, Minerals, Water imbalance, IV fluids, Vaccines, Antivenom, Antirabies serum, Local anti septics, Drugs in Forstophthalmic practice, Anti cancer drugs Immunomodulators का वर्णन किया गया है। प्रत्येक अध्याय के शुरू में वर्णित विषयवस्तु का उल्लेख किया गया है।
• ग्रन्थ से सम्बन्धित मूलवाक्यों को प्रत्येक अध्याय के अन्त में दिया गया है जिससे • मूलग्रन्थ विस्मृत न हो तथा प्रमाणिकता भी बनी रहे।
द्रव्यों के वर्गीकरण पर विशेष ध्यान देते हुए बृहत्त्रयी के सभी द्रव्यों के वानस्पतिक नाम तथा उन द्रव्यों के टीकाकार सम्मत नाम भी दिये गये हैं जिससे पाठकों को एक ही स्थान पर द्रव्य का मूलभूत ज्ञान मिल सके।
पाठकों में मूल विषयवस्तु को लेकर कोई भ्रम या सन्देह न रहे, इसके लिए मैंने प्रत्येक सन्दर्भ आयुर्वेद के मूल ग्रन्थ तथा उनकी टीकाओं का अध्ययन कर मूलरूप में ही उद्धृत किये हैं न कि अन्य किसी पुस्तक से।
• जिन द्रव्यों के वीर्य व विपाक रस से विपरीत होते हैं, उनका विस्तृत उल्लेख पंचदश अध्याय में किया गया है ।
● पुस्तक के अन्त में, पूर्व में पूछे गये परीक्षा प्रश्नपत्रों तथा प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछे जाने वाले महत्वपूर्ण प्रश्नों का संकलन किया गया है जिससे छात्रों को प्रश्न के स्वरूप का पता चल सके ।
यदि मेरी इस कृति से पाठकों को कुछ लाभ मिल सका तो मैं अपने कठिन परिश्रम को सार्थक समझुंगा ।
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भैषज्य कल्पना विज्ञान bhaishajya kalpana vigyan
Rs.275.00Sold By : The Rishi Mission Trustभैषज्य कल्पना विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान की प्रमुख शाखा है। इसमें औषधियों के विषय में निर्माणविधि और मानकों आदि का ज्ञान मिलता है।
आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा में भैषज या औषधि का प्रमुख स्थान है। आचार्य चरक ने औषधि या भैषज को चिकित्सा के चतुष्पावों में चिकित्सक के बाद द्वितीय पाद के रूप में वर्णित किया है। चिकित्सा की सफलता में औषधि को विशेष माना है। भैषज्य कल्पना विज्ञान में भैषज के विषय, विस्तृत स्वरूप, भेद, उत्पत्ति स्थल, संग्रह विधि, प्रयोज्यांग, पहचान, प्रयोगविधि मानक माप औषध और औषधियों के गुण कर्म आदि का ज्ञान मिलता है। इसमें विस्तृत स्वरूप और सम्यक ज्ञान का होना भारतीय चिकित्सा (आयुर्वेद) में इसकी प्रधानता को और भी प्रमाणिकता प्रदान करता है। य चिकित्सा विज्ञान का अभिन्न अंग है।
इस पुस्तक में CCIM पर आधारित पाठ्यक्रम के आधार पर विषयों को प्रस्तुत किया, गया है। यह पुस्तक स्नातक, स्नातकोत्तर एवं डॉक्ट्रेट प्रणालियों के अलावा आयुर्वेदिक औषधि निर्माताओं के लिए भी अमूल्य ग्रंथ के रूप में उपयोगी है। इस ग्रंथ में द्रव्य के संग्रहण विधि से लेकर विभिन्न संस्कार विधियाँ, संरक्षण विधियाँ और अंत में. रोगियों को वितरण नियमों के सिद्धांत भी पूर्णतः सम्मिलित हैं। सुलभ शैली, सरल भाषा, क्रमान्वित स्वरूप में विषय को प्रस्तुत किया गया है।
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आयुर्वेदिय रचना शारीर विज्ञान ayurvediy rachana sharir vigyan
Rs.325.00Sold By : The Rishi Mission Trustचिकित्सा शास्त्र के छात्र का पाठ्यक्रम प्राकृत शरीर के अध्ययन के साथ शुरू होता है। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र (M.B.B.S.) में मानव शरीर रचना (human anatomy) और मानव शरीर क्रिया (human physiology) इन विषयों का प्रथम वर्ष में अध्ययन होता है। आयुर्वेदाचार्य (B.A.M.S.) के अभ्यासक्रम में भी इन विषयों का समावेश किया गया है जो क्रम से रचना शारीर और क्रिया शारीर कहलाते हैं ।
प्राचीन काल में भी शरीर के ज्ञान को मूलभूत माना गया है । प्राणाभिसर वैद्य (जो चिकित्सक प्राणों की रक्षा करते हैं तथा रोगों का विनाश करते हैं) के गुणों में चरक के शरीर ज्ञान और शरीर उत्पत्ति ज्ञान को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है।
तथाविधा हि केवले शरीरज्ञाने शरीराभिनिर्वृत्तिज्ञाने प्रकृतिविकारज्ञाने च निःसंशया: । (च.सू. २९/७)
इस प्रकार (प्राणाभिसर वैद्य को) शरीर ज्ञान, शरीर अभिनिवृत्ति (उत्पत्ति) ज्ञान तथा प्रकृति-विकार का नि:संशय ज्ञान होता है । (चरक )
आयुर्वेदाचार्य के पाठ्यक्रम में जो रचना शारीर विषय है उसमें आयुर्वेदिय रचना शारीर तथा आधुनिक शरीर रचना, दोनों को सम्मिलित किया गया है। चरक-सुश्रुत आदि प्राचीन संहिताओं में रचना शारीर तथा क्रिया शारीर सम्बद्धि जो वर्णन प्राप्त होता है वह ‘आयुर्वेदिय शारीर’ है और आधुनिक मानव शरीर रचना ‘human anatomy’ कहलाती हैं ।
आयुर्वेदिय संहिताओं से रचना शारीर का जो वर्णन प्राप्त होता है वह विशिष्टता पूर्ण है। जैसे मर्म, स्रोत, कला आदि सिद्धांतों का निर्देश केवल आयुर्वेद में है। आयुर्वेदिय चिकित्सा शास्त्र का सफल प्रयोग करने के लिये उसके अपने सिद्धांतों को आयुर्वेदिय पद्धति से समझ लेना आवश्यक है । आधुनिक चिकित्सा शास्त्र ने निरन्तर संस्करण और अनुसंधान के बाद वर्तमानकालिक विकसित anatomy प्राप्त की है। रचना शारीर का सम्पूर्ण ज्ञान आज के आयुर्वेद चिकित्सक के लिये भी अत्यंत आवश्यक है इसलिये आयुर्वेदीय रचना शारीर विज्ञान
आयुर्वेदाचार्य के अभ्यासक्रम में आधुनिक anatomy का समावेश किया गया है। संहिताओं में उल्लिखित सिद्धांत हजारों साल पुराने है तथा उनका कालानुरूप योग्य संस्करण भी नहीं हुआ है । इसलिये physics, chemistry, bioliogy इन आधुनिक विज्ञान के विषयों का अध्ययन करनेवाले छात्रों को आयुर्वेदिय शारीर के कुछ सिद्धांतों का अध्ययन करने में कठिनता का अनुभव होने की संभावना है। ऐसे प्रसंग में छात्रों को अपने अध्यापकों के साथ विचार विनिमय करके शंकाओं का समाधान करना चाहिये ।
के साथ तुलना anatomy आयुर्वेदिय रचना शारीर की सभी संदर्भों में करना अथवा समानता दिखाना संभव नहीं और न्यायसंगत भी नहीं । प्रायः इस तुलना में तज्ञों में मतभिन्नता देखी जाती है । इसलिये आयुर्वेदिय सहिताओं में वर्णित मनुष्य के शरीर का विवेचन उसके मूल रूप में इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है। चरक – सुश्रुतादि के अपेक्षित शारीर को समझने का प्रयास इस ग्रंथ में किया गया है ।
संहिताओं से शरीर सम्बन्धित सिद्धांत तथा संकल्पना का अध्ययन करते समय कुछ कठिनता का सामना करना पड़ता है ।
14 १. रचना का विस्तृत वर्णन संहिताओं के शारीर स्थान में है परंतु शारीर के अन्य उपयोगी संदर्भ संहिताओं में बिखरे हुये हैं। यहाँ सब संदर्भों को संकलित करना तथा वर्णन को क्रमानुसार व्यवस्थित करना आवश्यक होता है। जैसे इन्द्रियों का वर्णन चरक में एक ही स्थान, अध्याय में प्राप्त नहीं होता । इस ग्रंथ के इन्द्रिय प्रकरण में जो श्लोक एकत्रित किये गये है वे चरक सूत्र स्थान के १, ७, ८, ११, १७, २८, ३० क्रमांकों के अध्यायों से तथा चरक शारीर स्थान के पहले और इन्द्रियस्थान के चौथे अध्याय से लिये गये हैं। इस प्रकार के संदर्भ सुश्रुत आदि अन्य संहिताओं से भी एकत्र किये गये हैं ।
२. संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्रत्येक छात्र को नहीं होता। इसलिये संस्कृत के श्लोक का बोध करना छात्रों के लिये कठिन होता है । ३. संहिताओं में प्रस्तुत अनेक सूत्र सार स्वरूप हैं उनका आशय समझना कठिन होता है । को
४. टिका सूत्र का विश्लेषण करती है, कठिन शब्दों का अर्थ व्यक्त करती है। इसलिये टिका का अध्ययन करना लाभदायक है। परंतु कभीकभी टिका भी अतिविस्तारीत होती है अथवा अपेक्षित अर्थ को प्रकट नहीं करती ।
५. आधुनिक विज्ञान के छात्रों के लिये आयुर्वेद के कुछ सिद्धांन समझना कठिन होता है; जैसे मर्म, स्रोत आदि ।
इस समस्या का मुकाबला करनेवाले आयुर्वेद के छात्रों की सहायता करने हेतु इस ग्रंथ का प्रबन्ध किया गया है।
यह संदर्भ ग्रंथ छात्रों को इस प्रकार सहायक है –
१. यहाँ संस्कृत तथा हिंदी भाषा का उपयोग किया गया है इसलिये अध्यापक तथा विद्यार्थी इस ग्रंथ का उपयोग कर सकेंगे ।
२. आयुर्वेदिय शारीर सम्बन्धित सुश्रुत, चरक आदि संहिताओं के सभी महत्त्वपूर्ण सूत्र, उनकी टिका तथा उनका योग्य हिंदी अनुवाद यहाँ उपलब्ध है।
३. यहाँ केवल आयुर्वेद के रचना सम्बन्धि विषयों का विस्तार से वर्णन किया गया है। आधुनिक anatomy के अनुवादित रूप का समावेश यहाँ नहीं किया गया है। क्योंकि आयुर्वेदिय शारीर और आधुनिक anatomy के मिश्र वर्णन से छात्र संभ्रमित होने की संभावना होती है और सभी वर्णन को आयुर्वेदिय शारीर के रूप में ही ग्रहण करते हैं। जैसे ‘अंसच्छदा’ deltoid muscle का केवल अनुवादित शब्द है । ‘असंच्छदा’ यह शब्द संस्कृत का रूप है परंतु इसका किसी आयुर्वेदिय संहिता में उल्लेख नहीं है। इसलिये इस प्रकार के anatomy के अनुवादित शब्दों का यहाँ उपयोग नहीं किया गया है| anatomy के लिये तो अनेक, अत्यंत विस्तृत पुस्तक उपलब्ध हैं। विद्यार्थी उनका स्वतंत्र उपयोग कर सकते हैं ।
४. इस ग्रंथ में आवश्यकता के अनुसार अत्यंत जरूरी स्थान पर ही आयुर्वेदिय रचना शारीर की anatomy के साथ तुलना की है अथवा सहसम्बन्धता का निर्देश किया गया है।
५. संहिताओं के एक-एक सूत्र की विशिष्ट प्रकार से, क्रम से योजना
आयुर्वेदीय रचना शारीर विज्ञान
की गई है ताकि छात्र पूर्ण संकल्पना का ज्ञान विना संभ्रम के प्राप्त कर सके। ६. आवश्यकता के अनुसार अवयवों का सचित्र वर्णन किया गया है जिसके उपयोग से विषय समझने में सुगमता हो तथा शास्त्र के प्रति अभिरूचि उत्पन्न हो ।इस ग्रंथ में रचना शारीर का ज्ञान आयुर्वेदिय पद्धति से प्राप्त करने का प्रयास किया गया है। ध्येय यह है कि छात्र शास्त्रवादी हो और रचना शारीर का विचार आयुर्वेदिय दृष्टिकोण से करें तथा केवल श्रेष्ठ आयुर्वेद के शारीर का ज्ञान प्राप्त कर सके ।
आशा है अध्यापक और विद्यार्थियों के लिये यह ग्रंथ उपयोगी तथा लाभदायक सिद्ध होगा ।
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वैशेषिक दर्शन प्रशस्तपादभाष्य vaisheshik Darshan prashastpadbhashya
Rs.285.00Sold By : The Rishi Mission Trustश्रीमन्महर्षिकणादविरचिते
वैशेषिकदर्शने
श्रीमन्महर्षिप्रशस्तदेवाचार्यविरचितं
प्रशस्तपादभाष्यम्
‘प्रकाशिका’ हिन्दीव्याख्याविभूषितम्
व्याख्याकार
आचार्य ढुण्ढिराज शास्त्री
वैशेषिकसूत्रव्याख्याकार श्रीनारायण मिश्र एम.ए. संस्कृत तथा पालिविभाग भारती महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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सांख्यदर्शनम sankhyadarshanam
Rs.500.00Sold By : The Rishi Mission Trustओ३म् सांख्यदर्शनम्
(आनन्दभाष्यसहितम् )
प्राक्कथन
महर्षि कपिल द्वारा प्रणीत सांख्यदर्शन में छह अध्याय हैं। सूत्रों की संख्या – ४५१ और प्रक्षिप्त सूत्रों को मिलाकर (४५१ + ७६=)५२७ है ।
इस दर्शन का उद्देश्य प्रकृति और पुरुष की विवेचना करके उनके पृथक्-पृथक् स्वरूप को दिखलाना है, जिससे जिज्ञासु व्यक्ति बन्धन के मूल कारण ‘अविवेक’ को नष्ट करके, त्रिविध दुःखों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त कर सके ।
सांख्य – शब्द
प्राय: गणनार्थक ‘संख्या ‘ शब्द से ‘सांख्य’ पद की व्युत्पत्ति मानी जाती है-पञ्चविंशतितत्त्वानां विचार: संख्या, तामधिकृत्य कृतो ग्रन्थ: ‘सांख्यः’ इति। अर्थात् पच्चीस तत्त्वों की संख्या ‘ (गणना) के आधार पर इस शास्त्र का नाम ‘सांख्य’ रखा गया है। किन्तु इस हेतु की अन्य दर्शनों में भी अतिव्याप्ति होती है क्योंकि वैशेषिक में छह या सात और न्याय में सोलह पदार्थ गिनाकर उनका विवेचन किया है ।
अतः ‘सांख्य’ का तात्पर्य समझना चाहिए, कि- ‘सम्यक् ख्यानम् = संख्या, तस्या व्याख्यानो ग्रन्थः ‘सांख्यः’ । अर्थात् त्रिगुणात्मिका प्रकृति,
पुरुष(परमात्मा और जीवात्मा) से भिन्न है, यह ज्ञान अथवा विचार ही ‘संख्या’ है। उसका व्याख्यान ग्रन्थ ‘सांख्य प्रकृति – पुरुषविवेकशास्त्रसांख्यशास्त्र के अनुसार पच्चीस तत्त्व हैं – प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, पञ्चतन्मात्र, ग्यारह इन्द्रियाँ, पञ्चमहाभूत और पुरुष । इनके भी चार प्रकार माने जाते हैं- १. केवल प्रकृति, २. प्रकृति-विकृति उभयात्मक, ३. केवल विकृति, ४ उभयभिन्न (=प्रकृति और विकृति दोनों से भिन्न पुरुष ) ।
भ्रान्ति-निवारण
, कुछ लोग ‘ईश्वरासिद्धेः’-सांख्य १/५७ (९२) आदि सूत्रों को देखकर महर्षि कपिल को नास्तिक कहते हैं, परन्तु पूर्वापर प्रसंग को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि महर्षि कपिल परम आस्तिक हैं। उस स्थल पर सांख्यदर्शन में प्रत्यक्षप्रमाण के प्रसिद्ध लक्षण से विलक्षण लक्षण किया है “यत्सम्बन्धसिद्धं तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत्प्रत्यक्षम्” – सां० १/५४ (८९ ) । इस लक्षण में कोई भी करण (उपकरण) नहीं कहा जिसके द्वारा वस्तु के साथ सम्बन्ध होने से विज्ञान = बोध = प्रत्यक्ष हो सके =
१. चर्चा, संख्या, विचारणा ( अमर ० ) सम् + ख्या + अङ् +टाप् (‘आतश्चोपसर्गे’अष्टा०३/३/१०६) =संख्या (= सम्यक् कथनं, सप्रमाणविचारणम्) संख्या + अण् (अधिकृत्य कृते ग्रन्थे ) = साङ्ख्यम् । दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागतः । कञ्चिदर्थमभिप्रेत्य सा संख्येत्युपधार्यताम् ।। (महा.शां.३२०/८२ ) अर्थात् किसी विषय को अधिकृत करके प्रमाणों सहित उसके दोषों, गुणों और स्वरूप का विचार करना ‘संख्या’ समझना चाहिए। २. कोष्ठक के अन्दर की संख्या प्रक्षिप्त सूत्र – सहित है।
इस दीखने वाले दोष के स्पष्टीकरण के लिए अगला सूत्र है-”योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोष: “ – सां०१/५५ (९०) योगियों का आन्तरिक (=बिना करण का ) प्रत्यक्ष भी होता है, वह भी इस प्रत्यक्षलक्षण में आ जावे, इसलिए लक्षण सूत्रा में करण ( उपकरण) का ग्रहण नहीं किया। योगियों के उस आन्तरिक प्रत्यक्ष को भी प्रत्यक्ष मानना अनिवार्य है, क्योंकि उसे प्रत्यक्ष न मानें तो ईश्वरासिद्धे: -सां०१/५७(९२) ईश्वर की असिद्धि का दोष आयेगा । सांख्य में वैसा ईश्वर स्वीकार किया जाता है, जो “स हि सर्ववित् सर्वकर्त्ता” (सां०३/ ५६ ) वह ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वकर्ता है, जो वेदादि शास्त्रों में स्वीकार किया जाता है। “ईदृशेश्वरसिद्ध: सिद्धा” (सां०३/५७) इस प्रकार के ईश्वर की सत्ता तो नित्य अबाध्य है।यह सांख्यशास्त्र, चिकित्साशास्त्र के समान चतुर्व्यूह है। जैसे चिकित्सा-शास्त्र में रोग, रोग का कारण, आरोग्य और ओषधि – ये चार प्रमुख बातें होती हैं; उसी प्रकार इस मोक्षशास्त्र में भी हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय – इन चार व्यूहों का वर्णन है । जिनमें त्रिविधदुःख ‘हेय’ है, उन त्रिविध दु:खों की अत्यन्त निवृत्ति ‘हान’, प्रकृति और पुरुष के संयोग से उत्पन्न अविवेक हैयहेतु’ और विवेक – ख्याति ‘हानोपाय’ है ।
इस भाष्य का दीर्घकाल से सांख्य-शास्त्र उपेक्षित रहा है। विशेषरूप से आद्य शंकराचार्य के समय से। क्योंकि उनकी मान्यता थी “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” अर्थात् एक ब्रह्म ही सत्य / वास्तविक है, जगत् में प्रतीत होने वाले पदार्थ तो मिथ्या (= स्वप्नवत् भ्रान्तिपूर्ण, असत्य ) हैं । शंकराचार्य की इस मान्यता का सबसे बड़ा विरोधी था, महर्षि कपिल का ‘सांख्यदर्शन’। क्योंकि यह सांख्यशास्त्र पुरुष (= जीवात्मा, परमात्मा) के साथ-साथ प्रकृति एवं प्राकृतिक पदार्थों की सत्यता / वास्तविकता और उपयोगिता को प्रबल तर्कों द्वारा स्पष्टता से समझाता है । अत: नवीन वेदान्तियों को आँख
में तिनके के समान खटकता रहा। क्योंकि कोई भी विचारशील पण्डित सांख्यशास्त्र के आधार पर नवीन वेदान्तियों के खण्डन में तत्पर हो सकता था। अत: नवीन वेदान्तियों ने भी प्रबलशत्रु ‘सांख्याशास्त्र’ का खण्डन प्रारम्भ कर दिया। उसका उपहास किया, महर्षि कपिल को नास्तिक बताया। सांख्यशास्त्र की अशुद्ध / सांख्यसिद्धान्तविरुद्ध व्याख्याएँ कराई गयीं; जिससे पण्डितों एवं जनता में सांख्यशास्त्र के प्रति अरुचि तथा उदासीनता होने लगी । जिस प्रकार योग एवं न्याय शास्त्रों पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखी गयीं, वैसी सांख्य पर नहीं ।सांख्य की सबसे पुरानी उपलब्ध टीका ‘अनिरुद्ध की वृत्ति’ है, जो अति संक्षिप्त एवं अनेकत्र सांख्यसिद्धान्त के विरुद्ध भी है ।
यह सांख्य का विरोध कुछ उसी प्रकार का था, जैसे कुरान एवं बाइबिल के प्रबल समर्थक भगवद्गीता का विरोध करते हैं। वे तो गीता को फाड़ते हैं, जलाते हैं। अनेक मुस्लिम राष्ट्रों में ‘गीता’ पुस्तक को पास रखने पर जेल या आर्थिक दण्ड दिया जाता है। जब कि गीता ने कुरान का कुछ नहीं बिगाड़ा। वह तो कुरान से लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पुरानी है। पुनरपि उसमें आत्मा की नित्यता एवं पुनर्जन्म का प्रबल प्रतिपादन उनके विरोध का कारण बनता है। ऐसी स्थिति में उन देशों में कौन गीता की व्याख्या या प्रचार करने का साहस कर सकता है ।
सांख्य शास्त्र के अध्ययन के समय में ही मेरी रुचि थी, कि ‘सांख्य’ की एक सरल, सांखसिद्धान्तों को स्पष्टता से बताने वाली एवं यथासम्भव संक्षिप्त व्याख्या तैयार की जाय । उसी के परिणामस्वरूप यह व्याख्या प्रस्तुत है। अस्तु, –
साथ ही इस व्याख्या में सांख्यशास्त्र का महत्त्व घटाने वाले कुछ प्रक्षिप्त सूत्रों का भी स्पष्टीकरण किया गया है।
आशा है यह व्याख्या सांख्य के सिद्धान्तों को समझने में विशेष सहायक होगी।
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