Category: YOG NIKETAN
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Hathyog Vidya
Rs.150.00Sold By : The Rishi Mission Trustयोग-साधना अति प्राचीन काल से ही अत्यन्त लोकप्रिय रही है, आज भी है और आगे भी रहेगी इसमें किंचित् मात्र सन्देह नहीं है। हमारे प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों का यह एक महान् अवदान सिद्ध हुआ है। भारतीय मोक्ष- साधना के क्षेत्र में योग एक सार्वभौम तथा सर्वोत्तम साधन पद्धति है। हमारे दर्शन आदि शास्त्रों में या धर्म-ग्रन्थों में किसी न किसी विषय पर या किसी अंश में वाद-विवाद बना ही रहता है। परन्तु योग ही एक ऐसा विषय है जिसमें वाद-विवाद के लिये कोई गुंजाईश नहीं है; क्योंकि योग तर्क का विषय नहीं है किन्तु अनुभूति का विषय है। इसलिये योग कहता है कि ऐसा करो, ऐसा करने से उसका फल ऐसा मिलेगा । यही कारण है कि औपनिषदिक काल के ऋषि-मुनि लोग भी इस योग-साधना में कुशल अभ्यासी बन कर योगसिद्ध योगी बन जाते थे। योगाभ्यास से होने वाले लाभों को भी वे मुक्तकण्ठ से व्यक्त करते थे। जैसे कहा है
‘न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम’ ।। श्वेता. २ / १२ ।।
अर्थात् जिस योगी ने योग-साधना का अभ्यास भली प्रकार से किया है और उस योग-साधना के द्वारा योगाग्निमय शरीर प्राप्त कर लिया है उस योगी को कोई भी रोग नहीं होता है। उसके पास शीघ्र बुढ़ापा नहीं आता है और उस योगी को मृत्यु भी शीघ्र प्राप्त नहीं होती है। यही योग की विशेषता है।’ इसे बहिरंग योग या हठयोग विद्या के चमत्कार कहे तो अत्युक्ति नहीं होगी। योग के इन्हीं महान् लाभों तथा गुणों के कारण ही आज ‘योग- चिकित्सा’ नामक एक नयी चिकित्सा पद्धति भी विकसित हुई है।
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Nirgun Brahm
Rs.175.00Sold By : The Rishi Mission Trustप्रस्तुत ग्रन्थ “निर्गुण ब्रहा” परमपूज्य ब्रहापि श्री स्वामी योगेश्वरानन्द सरस्वती जी महाराज की ब्रह्मपरक अनुसन्धानात्मक विचार शैली का पूर्णरूपेण परिचायक है। उन्हीं के द्वारा पूर्व रचित ग्रन्थ “ब्रहाविज्ञान” में ब्रहा साक्षात्कार के साधनों का सविस्तार प्रतिपादन किया गया था। इस स्वनामसिद्ध रचना में ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप का युक्ति संगत एवं निर्णयात्मक निदर्शन कराया गया है और ब्रह्म के सम्बन्ध में प्रचलित अनेक सिद्धान्तों के यथोचित परीक्षण के पश्चात् प्रमाण सिद्ध मन्तव्यों तथा निष्कर्षों की उपस्थित किया गया है। ग्रन्थ के अनुपम महत्त्व का निर्णय तो विचारशील जिज्ञासु पाठक स्वयं कर सकेंगे। इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्म जैसे गम्भीर जटिल एवं गहनतम विषय पर गुरुदेव की यह अनूठी देन एक बड़े अभाव की पूर्ति करती है।
आशा है कि यह विचित्र दार्शनिक उपहार अपनी गम्भीरता द्वारा ब्रहा विषयक चिन्तन एवं ज्ञान की ओर प्रेरित करते हुए जिज्ञासु साधकों को ज्ञानशील बनाने में सफल होगा।
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Yog Aur sadhana
Rs.100.00Sold By : The Rishi Mission Trustयोग भारतवर्ष की अति प्राचीन साधनाओं में से एक है। सृष्टि के आदि काल से ही क्रान्तदर्शी हमारे पूर्वज इस पवित्रतम् एवं श्रेष्ठतम् योग साधना का सेवन करते आ रहे हैं । अर्थात् तत्त्वदर्शी ऋषि, महर्षि, यति, योगी तथा महान् साधकगण युग-युग से इसका अभ्यास करते आ रहे हैं। इस योग साधना के द्वारा न जाने कितने ही . योगियों के जीवन पावन बन गये होंगे धन्य बन गये होंगे कौन इनकी गणना करें। मानव की यह महासाधना अनादिकाल से चली आ रही है और अनादिकाल तक चलती ही रहेगी- यह ध्रुव सत्य है।
योग नाम समाधि का है, क्योंकि समाधि के द्वारा ही आत्मदर्शन तथा ब्रह्मसाक्षात्कार आदि होता है । इसलिये वेद में कहा भी है ‘स धीनां योगमिन्वति’ ।। ऋ. १/१८/७।। योग क्या है ? चित्त के समाधान का नाम योग है अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाना या रुक जाना ही योग है। चूंकि चित्त की क्लिष्ट वृत्तियों का निरोध हो जाने पर ही योग विज्ञान का उदय होता है, अर्थात् प्रारम्भ होता है उससे पूर्व नहीं। कठोपनिषद् में भी कहा है।
‘तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरमिन्द्रिय धारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योग हि प्रभवाप्ययौ’ ।।
कठ. २/६/१२ ।।
इन्द्रियों की स्थिर धारणा ( संयम ) को ही योग कहते हैं। इसके साधन से मुमुक्ष योगी पुरुष अप्रमत्त हो जाता है । और उसका योग इष्टोत्पादक तथा अनिष्ट निवारक होता है।’ योग वस्तुतः एक कल्पवृक्ष के समान हैं। सच्चे योग मार्ग से चलकर योगी जो चाहे वही प्राप्त कर सकते हैं। इस बात के लिये योग दर्शन का ‘विभूतिपाद’ स्पष्ट उदाहरण है। श्रुति में भी कहा है कि
‘न तस्य रोग न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम्’ ।।
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Dhyan yog Sadhana
Rs.100.00Sold By : The Rishi Mission Trustइस विश्व ब्रह्माण्ड में समस्त शक्तियों का भण्डार समस्त विश्व का संचालक तथा समस्त चेतनाओं का मूलभूत तत्त्व एकमात्र परब्रह्म परमात्मा ही है अन्य कोई नहीं। इस सत्य को मान लेने पर और उसका ध्यान करने से आपके और उसके बीच में जितने भी पर्दे हैं वे सबके सब एक-एक करके उठ जायेंगे, हट जायेंगे। तब एकदिन आप पायेंगे कि आप और वह एक हो गये हैं आप और उसमें कोई भेद नहीं रह गया है। तब आपके लिये मुक्ति मोक्ष का द्वार खुला हुआ ही समझो। परन्तु यह कार्य ध्यान साधना के बिना नहीं हो सकता है, यह भी सत्य है। ऐसी स्थिति में ध्यान का महत्व और भी बढ़ जाता है ।
एक प्रारम्भिक साधक के समक्ष कितनी समस्याएँ आकर उपस्थित होती है, साधक ही इस बात को जानते हैं । अर्थात् ध्यान कैसे करना चाहिये? किसका ध्यान करना चाहिये? शरीर के भीतर कहाँ ध्यान करना चाहिये ? ध्यान काल में क्या-क्या होता है? ध्यान में मन क्यों नहीं लगता है ? मन को एकाग्र समाहित करने के लिये क्या उपाय करना चाहिये? आत्मदर्शन कब और कैसे होता है ? इस प्रकार की तमाम समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं ।
हुए हर्ष की बात है कि हमारे स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती जी ने इस ग्रन्थ इन सारी समस्याओं का समाधान करते अनेक प्रकार की उच्चतम ध्यान-साधनाओं का विस्तृत वर्णन किया प्रस्तुत है। सगुण निर्गुण आदि ध्यान विधि से लेकर सम्प्रज्ञात असम्प्रज्ञात समाधि तक सविस्तृत वर्णन किया है ।
यद्यपि ब्रह्मलीन पूज्यपाद स्वामी योगेश्वरानन्द सरस्वती जी महाराज के द्वारा रचित आत्मविज्ञान, ब्रह्म विज्ञान, दिव्यज्योति विज्ञान, दिव्य शब्द विज्ञान तथा व्याख्यान माला आदि ग्रन्थों में ध्यान तथा समाधि आदि के विषय में पर्याप्त रूप में लिखे गये हैं
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Divy Shabd Vigyan
Rs.210.00Sold By : The Rishi Mission Trustप्रात: वन्दनीय श्री योगेश्वरानन्द परमहंस ने इस ‘दिव्य शब्द विज्ञान’ को बड़ी बुद्धिमत्ता और सूक्ष्मदर्शिता से लोकोपकारार्थ लिख कर प्रदान किया है। इस ग्रन्थ में शब्द और मन्त्र द्वारा आत्मा परमात्मा के साक्षात्कार के अनेक साधन साधकों के लिए बताये गए हैं।
इस ग्रन्थ में 108 प्रकार के दिव्य शब्दों और मन्त्रों द्वारा पदार्थों में आत्मा, परमात्मा, कार्य कारणात्मक प्रकृति के साक्षात्कार का वर्णन है। प्रकृति की परिणत होती हुई प्रत्येक अवस्था में ब्रह्म का व्याप्य – व्यापक भाव सम्बन्ध दिखाकर इसको प्रत्यक्ष करने की बातें बतायी गयी हैं ।
जिस प्रकार ‘प्राण-विज्ञान’ और ‘दिव्य ज्योति विज्ञान’ में प्राण और ज्योतियों द्वारा पदार्थों में आत्मा और परमात्मा के साक्षात्कार के साधन बताये गये हैं, इसी प्रकार इस ‘दिव्य शब्द विज्ञान’ ग्रन्थ में आत्मा, परमात्मा और प्रकृति के साक्षात्कार के बहुत से साधन लिखे गये हैं। पाठकवृन्द बहुत शीघ्र इस विज्ञान को समझने में समर्थ होंगे।
इस ग्रन्थ को पूज्यपाद श्री योगेश्वरानन्द परमहंस जी ने योग निकेतन पहलगाम (काश्मीर) में 3 मास के योग साधना शिविर के अवसर पर लिखा है। यह आश्रम बहुत एकान्त शान्त स्थान है। आस-पास में चीड़, कैपल, देवदार के वृक्ष और बड़े-बड़े विशाल पर्वत हैं जो प्रायः हिमाच्छादित और हरे भरे बने रहते हैं। थोड़ी दूर पर नीचे लिदर नाम की नदी बह रही है। इसका जल पत्थरों से टकराकर कल-कल शब्द करते हुए चलता है। इसकी ध्वनि में बाहर के अन्य शब्द सुनायी नहीं देते। ध्यानाभ्यास के लिए बहुत पवित्र स्थान है। श्री योगश्वरानन्द परमहंस ने ‘निर्गुण ब्रह्म’, ‘प्राण विज्ञान’ और ‘दिव्य ज्योति विज्ञान’ ग्रन्थ’ यहां ही लिखे थे और अब ‘दिव्य शब्द विज्ञान’ ग्रन्थ भी यहां ही लिखा गया है।
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Divy Jyotish Vigyan
Rs.250.00Sold By : The Rishi Mission Trustरथूल शरीर की दिव्य की दिव्य ज्योतियाँ
(सात्विक, राजस, तामस भेद से)
स्थूल शरीर में ६६ प्रकार की दिव्य ज्योतियों का साक्षात्कार और इनके द्वारा आत्मानुभूति
इस दिव्य ज्योति विज्ञान ग्रन्थ में ज्योतियों के द्वारा आत्मा-परमात्मा एवं प्रकृति और उसके कार्यो के तत्त्वज्ञान का वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम हम स्थूल जगत् और स्थूल शरीर का वर्णन करेंगे। सृष्टि उत्पन्न होने के पश्चात जब अनेक वर्षो में हमारी पृथ्वी प्राणियों के उत्पन्न करने योग्य हो गयी, तब जैवी सृष्टि का प्रारम्भ हुआ। उस जैवी सृष्टि में सर्वप्रथम प्राणियों में मनुष्य सर्वोत्तम माना गया, मनुष्य शरीर में स्थूल पंचभूतों को उपादानकरण माना गया है। उन पंचभूतों में अग्निभूत सहकारी उपादान-करण के रूप में हुआ। जिस प्रकार वायुभूत परिणत होकर शरीर में प्राण के रूप में तेज अथवा ज्योति के रूप में परिणत होकर पोषक रूप में जीवन का आधार बना है।
जिस प्रकार अग्नि पृथ्वी के अन्दर रहकर सर्व पदार्थो का उसमें पाक करती है इसी प्रकार शरीर में भी अग्नि सर्व धातुओं और पदार्थो का पाक करती है। शरीर में इसी की उष्णता देखने मे आती है। अन्न-जलादि का पाक करके इससे रूधिर, रज, वीर्य, मल, मूत्र, तैयार करना इसी का प्रधान कार्य है। यह अग्नि हमारे शरीर में दस भागों में विभक्त होकर दस स्थानो में ठहरी है और हमारे जीवन का आधार बनी हुई है। इसके बिना जीवन का बना रहना असम्भव है। इसका अभाव होने पर मृत्यु समीप आने लगती है। इसकी उष्णता समाप्त होने पर मानव अथवा प्राणीमात्र का जीवन समाप्त हो जाता है
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Bahirang Yog
Rs.400.00Sold By : The Rishi Mission Trustवेदों में आत्मा-परमात्मा, जड़-चेतन, लोक-परलोक, धर्माधर्म आदि लौकिक – अलौकिक विषयों के सम्बन्ध में कथित यथार्थता का दर्शन योग के द्वारा मानव कर सकते है; तथा त्रिगुणों के सहित प्रकृति और आत्मा के स्वरूपों का ‘प्रकति पुरूष – विवेक’ के द्वारा निर्भ्रान्त निश्चय कर सकते हैं। धर्माधर्म, पुण्यापुण्य, शुभाशुभ कर्मों के फल देने की रीति आदि को प्रत्यक्ष करके निजी जन्मान्तर का भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है। योग हमें वह ‘दिव्य दृष्टि’ प्रदान करता है, जिसके द्वारा हम सांसारिक बाह्य- समस्याओं के साथ आन्तरिक – शङ्काओं का समाधान यथार्थतः प्राप्त करते हुए, अतीन्द्रिय तत्त्वों के सम्बन्ध में प्रचलित विविध मान्यताओं से उत्पन्न विवादों को सरलता से समाप्त कर सकेंगे; क्योकि अन्तिम एक सत्य का निर्भ्रान्त अटल साक्षात्कार हो जाने पर मतमतान्तरों के विवाद, झगड़े फिर स्वतः शान्त हो जायेंगे | योगानुष्ठान का मुख्य फल यही मिलता है कि योगी को भौतिक- अभौतिक पदार्थों का साक्षात्कार होकर, प्रकृति-पुरुष के यथार्थ स्वरूपों के दर्शन से प्रकृति के कष्टमय बन्धन से छूटकर, परमानन्दमय धाम ‘मोक्ष’ में स्थान मिल जाता है।
योग के ऊपर-कथित इस उद्देश्य की पूर्ति में सहयोग देने की दृष्टि से ही ‘आत्म-विज्ञान’ ग्रन्थ लिखा गया, जो सम्प्रति उपलब्ध होने वाले योग के ग्रन्थों से सर्वदा अनूठा तथा शिरोमणि-ग्रन्थ है | इस ग्रन्थ के रचयिता बालब्रह्मचारी श्रद्धेय स्वामी श्री व्यासदेव जी महाराज योगीराज गङ्गोत्री वाले है । ‘आत्म विज्ञान’ क्या है ? आन्तरिक सूक्ष्मतम गूढ़ रहस्यों की ऐसी उत्तम, सरल, मनोरम तथा स्पष्ट व्याख्या है, जिसे देखकर ही, इसे अपने पास रखने की इच्छा प्रबल हो जाती है। योग निकेतन ट्रस्ट ने इसे प्रकाशित करके अपना कर्तव्य पूर्ण कर ने दिया था; इसमें अष्टाङ्ग – योग के अन्तरङ्ग की धारणा, ध्यान, समाधि, संयम अङ्गों पर विशेष प्रकाश डाला गया है,
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Brahm Vigyan
Rs.450.00Sold By : The Rishi Mission Trustपरब्रह्म परमेश्वर की अपार कृपा में ब्रह्मनिष्ठ योगिप्रवर ब्रह्मणि १०८ स्वामी योगेश्वरानन्द सरस्वती जी महाराज रचित योगविषयक ग्रन्थमाला के तीसरे पुष्प “ब्रह्म-विज्ञान” को जनता की सेवा में प्रस्तुत करते हुए, हमें हर्ष होता है। इस ग्रन्थ-माला की पहली दो पुस्तकों में अष्टांग योग के आठों अंगों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। यह “ब्रह्म-विज्ञान” पुस्तक उच्च कोटि के साधकों के लिए श्री स्वामी जी महाराज की अपार देन है । इस ग्रन्थ में सृष्टि की उत्पत्ति, प्रकृति और उसके कार्यों एवं ब्रह्म के साक्षात्कार जैसे सूक्ष्मतम विषयों की व्याख्या है। श्री स्वामी जी महाराज ने अपने पिछले ६० वर्षों की तपस्या में किये गये अनुभवों के आधार पर इस पुस्तक की है । की रचना
हिन्दी साहित्य में यह अद्भुत, अमूल्य, अपूर्व और महान् ग्रन्थ है। भारत क प्राचीन ऋषियों ने ब्रह्म-विज्ञान अथवा ब्रह्म विद्या के सम्बन्ध में ग्रन्थों का एलोक या सूत्र रूप में निर्माण किया था। कई सहस्र वर्षों से इस विद्या का लोप होता जा रहा था, परन्तु इस लुप्तप्राय विद्या को श्री पूज्य स्वामी जी ने अपने अनुभवों के आधार पर पुनर्जीवित किया है और सर्वसाधारण जनता के लिए हिन्दी भाषा में यह ग्रन्थ रचकर मानव जाति के ऊपर महान् उपकार किया है। हमें पूर्ण आशा है कि इस विज्ञान के युग में श्री स्वामी जी महाराज की इस रचना से शान्ति और आनन्द की धारा का शाश्वत् प्रवाह अनन्त काल तक बहता रहेगा ।
इस ग्रन्थ से पूर्ण लाभ उठाने के लिए साधक “बहिरङ्ग-योग” और “आत्म-विज्ञान” में वर्णित साधनों का विधिपूर्वक अनुसरण कर |
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Patanjali Yoga Darshan
Rs.225.00Sold By : The Rishi Mission Trustदर्शन शब्द का व्युत्पत्ति – लभ्य अर्थ है- ‘दृश्यते अनेनेति दर्शनम्’ । जिसके द्वारा देखा जाय वही दर्शन है। अर्थात् सृष्टि और अतिसृष्टि के तत्त्व समूहों को जिसके द्वारा देखा जाता है सम्यक् प्रकारेण जाना जाता है वही दर्शन है। भारतीय दर्शन शास्त्रों में योग दर्शन का स्थान विशेष महत्वपूर्ण है। दर्शन शास्त्रों में यही एक क्रियात्मक दर्शन है और योगरूप मोक्ष साधना का प्रतिपादक होने से मोक्षशास्त्र भी है। वर्तमान युग में पातञ्जल योगदर्शन ही एक प्रामाणिक तथा प्राचीनतम योगशास्त्र है योगसाधन मार्ग पर चलने वाले मुमुक्षु साधकों के लिये योगदर्शन ही एक प्रकार से प्रकाशस्तम्भ का काम देता आया है और आगे भी देता रहेगा – वह ध्रुव सत्य है । राजयोग का आधार ग्रन्थ पातञ्जल योगदर्शन का ही माना जाता है।
बहुत दिनों से यह विचार था कि योगदर्शन का एक संक्षिप्त संस्करण संस्था से प्रकाशित किया जाय। परन्तु कई कारणों से वह कार्य पूर्ण न हो सका। इस वर्ष परमेश्वर की अहेतुक कृपा से वह कार्य सम्पन्न हो गया। स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती जी ने अल्पकाल में ही इस पर ‘सम्यग्दर्शिनी’ हिन्दी व्याख्या लिख दी और संस्था ने साथ-साथ प्रकाशित भी कर दिया है ।
यह हिन्दी व्याख्या यद्यपि व्यासभाष्य का पूरा पूरा अनुवाद नहीं है फिर भी व्यासभाष्य के आधार पर ही यह व्याख्या लिखी गयी है। व्याख्या संक्षिप्त होने पर भी सूत्रार्थ बोधक हैं। सूत्रों का अन्वय पदच्छेद पूर्वक अर्थ दिये जाने से सभी वर्गों के पाठकों के लिये पुस्तक विशेष उपयोगी सिद्ध होगी। हम आशा करते हैं कि सभी प्रकार के पाठक एवं साधकगण इससे लाभ उठा सकेंगे। इतिशम्!
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Himalaya Ka Yogi Vol 1-2
Rs.600.00Sold By : The Rishi Mission Trustमहापुरुष सभ्यता, संस्कृति और धर्म के स्रोत होते हैं। वास्तव में वे किसी भी देश अथवा राष्ट्र की अलौकिक निधि होते हैं। इनके द्वारा ही मानव-आत्मा का रक्षण और पोषण होता है। विश्व – कल्याण के लिए वे सदैव चिन्तित रहते हैं। अज्ञान के गहन गर्त में डूबे जीवों की दयनीय दशा को देखकर वे द्रवित होते हैं और अपनी अहैतुकी कृपा की वर्षा वे उन पथभ्रष्टों और किंकर्त्तव्यविमूढ़ प्राणियों पर शाश्वतरूपेण करते रहते हैं। जब मानव धर्म के प्रति उदासीन हो जाता है, अधर्म की अभिवृद्धि होने लगती है, पापाचरण का समर्थन होता है, भगवद्भक्तों का उपहास और अपमान होने लगता है, तब आर्तों की आर्ति हरण करने तथा दुःखितों के दुःखों को दूर करने और पतितों के परित्राण, धर्म के उद्धार, सभ्यता तथा संस्कृति के सुधार, पावन परम्पराओं की पुनःस्थापना और लोक-कल्याण के लिए जगन्नियन्ता प्रभु किसी न किसी समर्थ उत्तम विभूति को संसार में प्रेषित किया करते हैं। महानात्मा ब्रह्मर्षि प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद नैष्ठिक ब्रह्मचारी स्वामी योगेश्वरानन्द परमहंस उन दिव्य विभूतियों में से एक हैं। योग
का पुनरुद्धार
भक्तिभाव की जाह्नवी तो अनेक विमल धाराओं सहित किसी न किसी रूप में हमारे देश में गत कई शताब्दियों से प्रवाहित होती रही। समय-समय पर इसका विभिन्न सहायक धाराओं से परिपोषण और परिवर्धन होता रहा। कबीर, रविदास, नामदेव, एकनाथ, रामदास आदि इसी भक्तिमय परम्परा के पथिक थे, किन्तु योगपरम्परा को हमारा समाज बिल्कुल भूल गया था। भक्ति मार्ग की सरलता और में सुगमता आकर्षण था। भक्ति बड़ी सुबोध और आसानी से समझ में आ जाती थी। सहजगम्य होने से वह साधारणजनप्रिय भी थी। पापात्माओं को भी उल्टा – सुल्टा भगवन्नाम स्मरणमात्र से ही परित्राण की आशा दिलाती थी । अतः वह सर्वाधिक लोकप्रिय बन गयी। –
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