अथर्ववेदीय कुन्तप सूक्त Atharvvediy Kuntaap Sukt
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अथर्ववेद के कुन्ताप – सूक्तों ( २० / १२७-१३६ ) की व्याख्याएँ अथर्ववेद के अनेक भाष्यकारों ने नहीं लिखी हैं । जिन्होंने लिखी हैं, वे प्रायः संक्षिप्त, अस्पष्ट एवं असम्बद्ध प्रतीत होती हैं। इन सूक्तों की प्रक्षिप्तता की मान्यता भी इसमें कारण बनी हुई है । ऐसी स्थिति में मान्य स्वामी जगदीश्वरानन्द जी एवं डॉ. वेदपाल जी (मेरठ) की प्रेरणा से इन कुन्ताप ( पाप तापनाशक) सूक्तों का यह संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। यदि पाठकों को यह विवेचन पसन्द होगा, तो इन सूक्तों की विधिवत् व्याख्या लिखने का प्रयत्न किया जाएगा । आशा है, सुधीजन अपनी प्रतिक्रिया / सम्मति देंगे ।
निवेदक
आनन्दप्रकाश
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Vaisheshik Darshan
Rs.800.00Rs.600.00Sold By : The Rishi Mission Trustओ३म् महर्षि कणाद-विरचितम् वैशेषिकदर्शनम प्रशस्तपादभाष्यसहितम् व्याख्याकार : सम्पादकश्च आचार्य आनन्दप्रकाशः
इस संसार में जन्म से लेकर मृत्यु तक सुख-दुःख का सिलसिला चलता रहता है । मनुष्य अपनी साधारण दृष्टि से जिसे सुख समझता है वह भी क्षणिक, दुःखमिश्रित एवं दुःखरूप ही सिद्ध होता है । इसलिए विचारशील व्यक्ति दुःख की आंशिक एवं आत्यन्तिक निवृत्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहते हैं । ‘दुःख की सर्वथा निवृत्ति (मोक्ष) कैसे हो – इसी का उपाय या मार्ग बताना दर्शनशास्त्र का लक्ष्य है । दार्शनिक रुचि रखनेवाले महानुभाव जानते हैं, कि वैदिक दर्शन मोक्ष को ही परमपुरुषार्थ मानकर प्रवृत्त हुए हैं । परन्तु इस परमलक्ष्य की प्राप्ति के लिए अध्यात्म और अधिभूत दोनों ही विज्ञान अपेक्षित हैं। हमारे वैदिक दर्शनों में तत्त्वज्ञान के लिए दोनों विज्ञानों का उल्लेख हुआ है । किसी दर्शन में मुख्यरूप से अध्यात्म-विषय का विवेचन किया गया है और किसी में अधिभूत का ।
प्रकृत वैशेषिक दर्शन में उन पदार्थों का विवेचन है, जिनके मध्य हमारा जीवन पनपता, फलता-फूलता है । वैशेषिक दर्शन उस समस्त अर्थ-तत्त्व को छह वर्गों में विभाजित करके उन्हीं का मुख्य रूप से प्रतिपादन करता है । इस विवेचन के मुख्य विषय अधिभूत तत्त्व हैं, जिनको मनुष्य अपने चारों ओर फैला हुआ पाता है । आंशिक रूप से इसमें अध्यात्म भी आ गया है। दूसरी ओर न्यायदर्शन में वस्तुतत्त्व को जानने समझने की प्रक्रिया का विस्तृत प्रतिपादन है । वह वस्तुतत्त्व चाहे अध्यात्म हो या अधिभूत, वह प्रक्रिया है -प्रमाण । न्यायदर्शन में विस्तार से ‘प्रमाण’ का सर्वाङ्गीण प्रतिपादन किया है। अन्य जो कुछ है, वह प्रसंगोपयोगी है ।
ये प्रमाण और प्रमेय दोनों एक दूसरे के पूरक (= सहयोगी) हैं; क्योंकि प्रमाण प्रमेयों को जानने के साधन हैं और प्रमेय पदार्थ प्रमाणों के साध्य (= जानने के विषय) हैं ।
अर्थात् न्यायदर्शन में मुख्यरूप से प्रमाणों का विवेचन है और वैशषिकदर्शन में मुख्यरूप से प्रमेय पदार्थों का विवेचन किया गया है ।
‘वैशेषिक’ शब्द का अर्थ
विशेषं पदार्थभेदमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः ‘वैशेषिकम्’ [विशेष + ठञ् वैशेषिकम् । – (‘अध्यात्मादिभ्यश्च’- अष्टा. ४/३/६० वा. ३) ] = विशेष नामक पदार्थ को मूल मानकर प्रवृत्त हुए शास्त्र को ‘वैशेषिक’ कहते हैं । ” =
अर्थात् पृथिवी, जल, अग्नि, वायु आदि को स्थूलभूत एवं ‘विशेष’ कहते हैं। इनकी रचना उनके परमाणुओं से हुई है । जिस पदार्थ को तोड़ते-तोड़ते ऐसी स्थिति आ जाये, कि उसके अन्तिम टुकड़े के आगे कोई टुकड़े न हो सकें उसे ‘परमाणु’ (= अन्तिम सूक्ष्म) कहते हैं । स्थूल भूतों की व्यक्तरूप में रचना इन्हीं परमाणुओं से हुई है, तथा इन स्थूलभूतों से मनुष्य-पशु-पक्षी-वनस्पति एवं सांसारिक भौतिक पदार्थों की रचना हुई है ।
इनमें एक परमाणु दूसरे परमाणु से भिन्न क्यों है ? इसकी क्या विशेषता है? इनमें कौन सा विशेष धर्म है ? इन विशेष पदार्थों का वर्णन होने से इसे वैशेषिक दर्शन कहते हैं ।
इन्हीं परम सूक्ष्म कणों को सांख्य- योग में ‘विशेष’ कहा है । यथा “विशेषाऽविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि” – ( योग. २ / १९) । ‘अविशेषाद् विशेषारम्भः’ – (सां. ३/१) ।
सामान्य जिज्ञासु की ग्राह्य क्षमता के अनुरूप शास्त्रीय अर्थ का प्रतिपादन उपयोगी होता है । इस भावना से प्रेरित होकर महर्षि कणाद व गौतम ने अपनेअपने शास्त्रों का प्रवचन किया । अपने प्रतिपाद्य जगदुत्पत्ति के क्षेत्र को व्यक्त जगत् के एक अंश तक सीमित रखा । अर्थात् ‘स्थूलभूतों के अन्तिम कण-रूप इन परमाणुओं की रचना कैसे हुई’ – इस विषय को महर्षि कणाद ने अपने शास्त्र की सीमा में नहीं लिया । इसलिए इन्द्रिय-ग्राह्य चारों भूत-तत्वों के परम सूक्ष्म कणों को जगत् का मूल एवं नित्य मान लिया है। यदि इन कणों (=परमाणुओं) की रचना पर भी प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जाता, तो यह अपने शास्त्र की सीमा से बाहर की बात होती ।
अधिभूत के इन सूक्ष्म कणों (परमाणुओं) के अन्तिम स्तर तक सांख्यदर्शन विवेचन प्रस्तुत करता है और साथ ही अध्यात्म-अधिभूत के सम्बन्ध को स्पष्ट करके उनके यथार्थ भेद को साक्षात् करने की ओर जिज्ञासु को प्रेरित करता है ।
योगदर्शन मुख्यरूप से उन प्रक्रियाओं का प्रतिपादन करता है, जिनके अनुष्ठान से अधिभूत और अध्यात्म के भेद का साक्षात्कार होता है ।
मीमांसादर्शन समाज के संगठन और उसके कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध कराता है, जो ऐहिक एवं पारलौकिक अभ्युदय के लिए आवश्यक है ।
वेदान्तदर्शन – इस समस्त विश्व के विधाता परब्रह्म के स्वरूप का प्रतिपादन करता है, एवं उसके ज्ञान के साधनों की ओर प्रेरणा देता है ।
इस प्रकार सभी शास्त्र अपने-अपने प्रतिपाद्य विषय की सीमा में ही कार्य कर रहे हैं ।
सूत्रकार महर्षि कणाद
यद्यपि लोकेषणा से रहित अन्य प्राचीन ऋषियों के समान वैशेषिक के रचयिता महर्षि कणाद ने अपने विषय में कुछ नहीं लिखा, पुनरपि कुश-काशावलम्बन से जो जानकारी एकत्र हुई, उसके अनुसार महर्षि कणाद का जन्म गुजरात प्रान्त में द्वारिका के पास प्रभास- पत्तन में हुआ । कणाद का वास्तविक (सांस्कारिक, नामकरण के समय माता-पिता द्वारा निर्धारित ) नाम ‘उलूक’ बताया जाता है । इसीलिए महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन का अन्य नाम ‘औलूक्यदर्शन’ भी है(द्र. – सर्वदर्शनसंग्रह) | इनका गोत्र नाम ‘काश्यप’ था । किन्तु पठन-पाठन के अवसर पर गुरु-शिष्य परम्परा से यह मान्यता प्रचलित है, कि जब किसान अपने खेत की खड़ी फसल को काट ले जाते थे, तब उससे झड़े हुए अन्न – कण (= दाने) जो खेत में पड़े रह जाते थे, उनको बीनकर यह ऋषि इकट्ठा कर लेता और उसी से अपना जीवन-निर्वाह करता था । इसलिए इनका नाम ‘कणाद’ (= कणों को खाने
वाला) प्रसिद्ध हो गया । अथवा कण (= अणु) के सिद्धान्त के प्रवर्तक होने से ये ‘कणाद’ कहे गये | महर्षि कणाद के गुरु का नाम ‘सोमशर्मा’ था ।
कठोर तपस्या से परमेश्वर की आराधना द्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञान से महर्षि कणाद ने लोकानुग्रहार्थ इस शास्त्र को प्रस्तुत किया, जिससे साधारण जिज्ञासु संसार में रहकर भी संसार के दुःखों से स्वयं को विमुक्त कर सकें ।
संसार के परमाणु पर्यन्त मूलतत्त्वों का, उनकी समानता और भिन्नताओं का एवं मानवीय व्यवहारों का जिस प्रकार सूक्ष्मता से व्यवस्थित विवेचन किया है, उससे संसार आश्चर्यचकित है । कपिल आदि अन्य ऋषियों के समान आपने भी भारत को गुरु बनाने वाला अद्भुत कार्य किया है । वैदिक एवं दार्शनिक जगत् संसार के गुरु महर्षि कणाद का विशेष उपकार मानते हुए श्रद्धा से हार्दिक प्रणाम करता है ।
सूत्ररचना – काल
यद्यपि डॉ. याकोवी एवं डॉ. उई जैसे पाश्चात्य पण्डित एवं उनके अनुयायी म.म. डॉ. कुप्पू स्वामी शास्त्री जैसे भारतीय विद्वान् महर्षि कणाद एवं उनके वैशेषिक का काल ५० से ५०० ई.पू. के बीच का समय बताते हैं । अर्थात् ई. सन् के आस-पास ही घुमाने का प्रयास करते हैं, किन्तु यह प्रयत्न अनुचित है; क्योंकि बौद्ध एवं जैन दर्शनों में वैशेषिक के सिद्धान्तों का उल्लेख है । जैन मत की ‘तत्त्व – मीमांसा’ का आधार तो वैशषिक दर्शन के पदार्थ द्रव्य, गुण, कर्मादि ही हैं । इससे स्पष्ट है, कि इस शास्त्र की रचना बौद्ध एवं जैन धर्म से पहले हो चुकी थी । आचार्य उदयवीर जी शास्त्री के अनुसार वैशेषिक दर्शन का रचना काल महाभारत से अर्थात् कृष्णद्वैपायन वेदव्यास से पहले कलियुगारम्भ से पूर्व का है; क्योंकि महाभारत के शान्तिपर्व (-४७/११); अनुशासनपर्व (-४ / ५१ ) और उद्योगपर्व ) – १८६ / २६) में ‘उलूक’ नामक ऋषि की चर्चा है, जो महर्षि कणाद का नामान्तर है।
वैशेषिक का महत्त्व
शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पद और पदार्थों का सम्यक् ज्ञान आवश्यक है । इनमें पदज्ञान के लिए जिस प्रकार व्याकरण शास्त्र का महत्त्व है; उसी प्रकार भौतिक पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए वैशेषिकदर्शन का महत्त्व है । इस विषय में एक उक्ति प्रसिद्ध है- ‘काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्’ अर्थात् काणाद शास्त्र (= वैशेषिक दर्शन) और पाणिनीय व्याकरण सभी शास्त्रों के उपकारक (= सहायक) हैं ।
आजकल जो पदार्थविद्या की प्रबल चर्चा पाई जाती है, उसका भण्डार यही शास्त्र है । परमेश्वर ने इस संसार की रचना किस प्रकार की और किस प्रकार मनुष्यसृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ; यह सब इसी शास्त्र से समझा जा सकता है । पृथिवी अपनी धुरी पर किस प्रकार घूमती है, किस प्रकार सूर्य की परिक्रम करती है, भूकम्प किस प्रकार होता है, पानी की ऊर्ध्वगति, बर्फ आदि का जमाव, अग्निविद्या तथा उसको प्रयोग में लाने की पद्धति आदि सभी बातें इसी शास्त्र से समझी जा सकती हैं । वस्तुतः पदार्थ – विद्या का स्वरूप जैसे इस शास्त्र में समझाया गया है, वैसा किसी अन्य शास्त्र में नहीं ।
भौतिक विज्ञान को समझाने के साथ-साथ यह शास्त्र आत्मज्ञान, मनोविज्ञान, सामाजिक विज्ञान, व्यवहार-विज्ञान को भी सूक्ष्मता से समझाता है, जिससे कुशल व्यक्ति इस संसार में सुख से जीता हुआ आत्मोन्नति एवं मोक्ष प्राप्त कर सकता है । अर्थात् यह शास्त्र अध्यात्म ज्ञान और अधिभूत विज्ञान से भरपूर है । – –
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सांख्यदर्शनम sankhyadarshanam
Rs.600.00Rs.500.00Sold By : The Rishi Mission Trustओ३म् सांख्यदर्शनम्
(आनन्दभाष्यसहितम् )
प्राक्कथन
महर्षि कपिल द्वारा प्रणीत सांख्यदर्शन में छह अध्याय हैं। सूत्रों की संख्या – ४५१ और प्रक्षिप्त सूत्रों को मिलाकर (४५१ + ७६=)५२७ है ।
इस दर्शन का उद्देश्य प्रकृति और पुरुष की विवेचना करके उनके पृथक्-पृथक् स्वरूप को दिखलाना है, जिससे जिज्ञासु व्यक्ति बन्धन के मूल कारण ‘अविवेक’ को नष्ट करके, त्रिविध दुःखों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त कर सके ।
सांख्य – शब्द
प्राय: गणनार्थक ‘संख्या ‘ शब्द से ‘सांख्य’ पद की व्युत्पत्ति मानी जाती है-पञ्चविंशतितत्त्वानां विचार: संख्या, तामधिकृत्य कृतो ग्रन्थ: ‘सांख्यः’ इति। अर्थात् पच्चीस तत्त्वों की संख्या ‘ (गणना) के आधार पर इस शास्त्र का नाम ‘सांख्य’ रखा गया है। किन्तु इस हेतु की अन्य दर्शनों में भी अतिव्याप्ति होती है क्योंकि वैशेषिक में छह या सात और न्याय में सोलह पदार्थ गिनाकर उनका विवेचन किया है ।
अतः ‘सांख्य’ का तात्पर्य समझना चाहिए, कि- ‘सम्यक् ख्यानम् = संख्या, तस्या व्याख्यानो ग्रन्थः ‘सांख्यः’ । अर्थात् त्रिगुणात्मिका प्रकृति,
पुरुष(परमात्मा और जीवात्मा) से भिन्न है, यह ज्ञान अथवा विचार ही ‘संख्या’ है। उसका व्याख्यान ग्रन्थ ‘सांख्य प्रकृति – पुरुषविवेकशास्त्रसांख्यशास्त्र के अनुसार पच्चीस तत्त्व हैं – प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, पञ्चतन्मात्र, ग्यारह इन्द्रियाँ, पञ्चमहाभूत और पुरुष । इनके भी चार प्रकार माने जाते हैं- १. केवल प्रकृति, २. प्रकृति-विकृति उभयात्मक, ३. केवल विकृति, ४ उभयभिन्न (=प्रकृति और विकृति दोनों से भिन्न पुरुष ) ।
भ्रान्ति-निवारण
, कुछ लोग ‘ईश्वरासिद्धेः’-सांख्य १/५७ (९२) आदि सूत्रों को देखकर महर्षि कपिल को नास्तिक कहते हैं, परन्तु पूर्वापर प्रसंग को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि महर्षि कपिल परम आस्तिक हैं। उस स्थल पर सांख्यदर्शन में प्रत्यक्षप्रमाण के प्रसिद्ध लक्षण से विलक्षण लक्षण किया है “यत्सम्बन्धसिद्धं तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत्प्रत्यक्षम्” – सां० १/५४ (८९ ) । इस लक्षण में कोई भी करण (उपकरण) नहीं कहा जिसके द्वारा वस्तु के साथ सम्बन्ध होने से विज्ञान = बोध = प्रत्यक्ष हो सके =
१. चर्चा, संख्या, विचारणा ( अमर ० ) सम् + ख्या + अङ् +टाप् (‘आतश्चोपसर्गे’अष्टा०३/३/१०६) =संख्या (= सम्यक् कथनं, सप्रमाणविचारणम्) संख्या + अण् (अधिकृत्य कृते ग्रन्थे ) = साङ्ख्यम् । दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागतः । कञ्चिदर्थमभिप्रेत्य सा संख्येत्युपधार्यताम् ।। (महा.शां.३२०/८२ ) अर्थात् किसी विषय को अधिकृत करके प्रमाणों सहित उसके दोषों, गुणों और स्वरूप का विचार करना ‘संख्या’ समझना चाहिए। २. कोष्ठक के अन्दर की संख्या प्रक्षिप्त सूत्र – सहित है।
इस दीखने वाले दोष के स्पष्टीकरण के लिए अगला सूत्र है-”योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोष: “ – सां०१/५५ (९०) योगियों का आन्तरिक (=बिना करण का ) प्रत्यक्ष भी होता है, वह भी इस प्रत्यक्षलक्षण में आ जावे, इसलिए लक्षण सूत्रा में करण ( उपकरण) का ग्रहण नहीं किया। योगियों के उस आन्तरिक प्रत्यक्ष को भी प्रत्यक्ष मानना अनिवार्य है, क्योंकि उसे प्रत्यक्ष न मानें तो ईश्वरासिद्धे: -सां०१/५७(९२) ईश्वर की असिद्धि का दोष आयेगा । सांख्य में वैसा ईश्वर स्वीकार किया जाता है, जो “स हि सर्ववित् सर्वकर्त्ता” (सां०३/ ५६ ) वह ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वकर्ता है, जो वेदादि शास्त्रों में स्वीकार किया जाता है। “ईदृशेश्वरसिद्ध: सिद्धा” (सां०३/५७) इस प्रकार के ईश्वर की सत्ता तो नित्य अबाध्य है।यह सांख्यशास्त्र, चिकित्साशास्त्र के समान चतुर्व्यूह है। जैसे चिकित्सा-शास्त्र में रोग, रोग का कारण, आरोग्य और ओषधि – ये चार प्रमुख बातें होती हैं; उसी प्रकार इस मोक्षशास्त्र में भी हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय – इन चार व्यूहों का वर्णन है । जिनमें त्रिविधदुःख ‘हेय’ है, उन त्रिविध दु:खों की अत्यन्त निवृत्ति ‘हान’, प्रकृति और पुरुष के संयोग से उत्पन्न अविवेक हैयहेतु’ और विवेक – ख्याति ‘हानोपाय’ है ।
इस भाष्य का दीर्घकाल से सांख्य-शास्त्र उपेक्षित रहा है। विशेषरूप से आद्य शंकराचार्य के समय से। क्योंकि उनकी मान्यता थी “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” अर्थात् एक ब्रह्म ही सत्य / वास्तविक है, जगत् में प्रतीत होने वाले पदार्थ तो मिथ्या (= स्वप्नवत् भ्रान्तिपूर्ण, असत्य ) हैं । शंकराचार्य की इस मान्यता का सबसे बड़ा विरोधी था, महर्षि कपिल का ‘सांख्यदर्शन’। क्योंकि यह सांख्यशास्त्र पुरुष (= जीवात्मा, परमात्मा) के साथ-साथ प्रकृति एवं प्राकृतिक पदार्थों की सत्यता / वास्तविकता और उपयोगिता को प्रबल तर्कों द्वारा स्पष्टता से समझाता है । अत: नवीन वेदान्तियों को आँख
में तिनके के समान खटकता रहा। क्योंकि कोई भी विचारशील पण्डित सांख्यशास्त्र के आधार पर नवीन वेदान्तियों के खण्डन में तत्पर हो सकता था। अत: नवीन वेदान्तियों ने भी प्रबलशत्रु ‘सांख्याशास्त्र’ का खण्डन प्रारम्भ कर दिया। उसका उपहास किया, महर्षि कपिल को नास्तिक बताया। सांख्यशास्त्र की अशुद्ध / सांख्यसिद्धान्तविरुद्ध व्याख्याएँ कराई गयीं; जिससे पण्डितों एवं जनता में सांख्यशास्त्र के प्रति अरुचि तथा उदासीनता होने लगी । जिस प्रकार योग एवं न्याय शास्त्रों पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखी गयीं, वैसी सांख्य पर नहीं ।सांख्य की सबसे पुरानी उपलब्ध टीका ‘अनिरुद्ध की वृत्ति’ है, जो अति संक्षिप्त एवं अनेकत्र सांख्यसिद्धान्त के विरुद्ध भी है ।
यह सांख्य का विरोध कुछ उसी प्रकार का था, जैसे कुरान एवं बाइबिल के प्रबल समर्थक भगवद्गीता का विरोध करते हैं। वे तो गीता को फाड़ते हैं, जलाते हैं। अनेक मुस्लिम राष्ट्रों में ‘गीता’ पुस्तक को पास रखने पर जेल या आर्थिक दण्ड दिया जाता है। जब कि गीता ने कुरान का कुछ नहीं बिगाड़ा। वह तो कुरान से लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पुरानी है। पुनरपि उसमें आत्मा की नित्यता एवं पुनर्जन्म का प्रबल प्रतिपादन उनके विरोध का कारण बनता है। ऐसी स्थिति में उन देशों में कौन गीता की व्याख्या या प्रचार करने का साहस कर सकता है ।
सांख्य शास्त्र के अध्ययन के समय में ही मेरी रुचि थी, कि ‘सांख्य’ की एक सरल, सांखसिद्धान्तों को स्पष्टता से बताने वाली एवं यथासम्भव संक्षिप्त व्याख्या तैयार की जाय । उसी के परिणामस्वरूप यह व्याख्या प्रस्तुत है। अस्तु, –
साथ ही इस व्याख्या में सांख्यशास्त्र का महत्त्व घटाने वाले कुछ प्रक्षिप्त सूत्रों का भी स्पष्टीकरण किया गया है।
आशा है यह व्याख्या सांख्य के सिद्धान्तों को समझने में विशेष सहायक होगी।
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