उपनिषद प्रकाश upnishad Prakash
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भौतिक विज्ञान का अधूरापन
कहते हैं आज विज्ञान का युग है। सच में विज्ञान ने कितने ही आश्चर्यजनक आविष्कार कर डाले हैं। परन्तु विज्ञान भी अभी तक माया में ही उलझा पड़ा है और मनुष्य की एक भी समस्या को सुलझा नहीं पाया। आजकल का विज्ञान केवल भौतिक है। जड़ के ही कीचड़ में फंसा पड़ा है। और मनुष्य केवल जड़ नहीं। केवल पत्थर का टुकड़ा नहीं । इसमें एक छोड़, दो आत्माओं का निवास है। एक समस्त संसार को चलाने वाला परमात्मा और दूसरा इस शरीर का अधिष्ठाता जीवात्मा । ये दोनों ही आत्मा चेतन हैं । इसलिए जब तक माया और आत्मा दोनों की सम्मिलित खोज न होगी तब तक विज्ञान अधूरा और असफल रहेगा।
1 निस्सन्देह विज्ञान की भौतिक विजयें श्लाघनीय हैं । सूर्य में कितनी गरमी है, साढ़े नौ करोड़ मील दूर रहते भी यह पृथिवी को झुलसे डालता है। पर विज्ञान की सहायता से मनुष्य ने सूर्य से बचने के लिये आतप-शान्त (Sun Proof) साधन निर्माण कर लिये, बिना अग्नि जलाये सूर्य से अपना भोजन बनवाता है । जिस जल में दावानल को अबल करने का बल है, उस जल को कल बना मनुष्य नल में ले आया है। आग जंगल के जंगल भस्मसात् कर देती है, वही आग विज्ञान के वशवर्ती हो मनुष्य का भोजन पकाती है, कपड़ा बुनती है, चक्की पीसती है और जाने कितनी सेवायें मनुष्य की करती है। विद्युत् को तार में बांधकर मनुष्य समुद्र पार सन्देश भेजता है, घरों में प्रकाश करता है। इससे दूरस्थ के गाने सुनता है। सभी जीवनोपयोगी कार्य इसी से लेता है । विज्ञान की शक्ति से ये सारे बलवान् भूत मनुष्य के आज्ञापालक दास बने हुए हैं ।
पर हम भूलें नहीं कि केवल प्रकृति या माया का ज्ञान उलझनें बढ़ा तो देगा, सुलझा एक भी नहीं सकेगा। कहीं इतनी वर्षा होती
है कि विनाश जाग उठता है, कहीं-कहीं इतना सूखा कि मनुष्य पानी की बूंद को तरसने लगे, कहीं इतना पानी कि ग्राम के ग्राम, खेतों के खेत डूब जायें अर्थात् इन वस्तुओं पर भी विज्ञान का अधिकार नहीं।
और फिर जहां ये समस्यायें नहीं वहां विज्ञान के सुन्दर आविष्कारों के होते हुए भी मनुष्य दुःखी है। एक क्षण के लिए भी उसे सुख नहीं। कहीं भय है, कहीं घृणा, कहीं युद्ध की तैयारियां हैं, कहीं भयंकर शस्त्रों के आविष्कार ! ऐसा प्रतीत होता है कि जिस विज्ञान को मनुष्य ने रक्षा के लिए अपना सहायक बनाया था वही उसे सर्वनाश की ओर ले जा रहा है। कोई भी समस्या उससे सुलझ नहीं पाती। नित नई समस्या को उत्पन्न अवश्य कर देता है । विज्ञान के चरम विकास की स्थिति में जब मनुष्य चन्द्रमा तक में निवास करने को तैयार बैठा है, मनुष्य की शान्ति उससे दूर ही बनी है। प्रश्न है क्यों? महाकवि पन्त के शब्दों में हम कहना चाहेंगे। S चरमोन्नत जग में जब कि आज विज्ञान ज्ञान ।
बहु भौतिक साधन, यन्त्र-यान वैभव महान् ॥ प्रस्तुत हैं विद्युत् वाष्पशक्ति, धनबल नितान्त । फिर क्यों जग में उत्पीड़न, जीवन क्यों अशान्त ? मानव ने पाई देश-काल पर जय निश्चय । मानव के पास न पर मानव का आज हृदय! चाहिये विश्व को आज भाव का नवोन्मेष ।
sma मानव उर में फिर मानवता का हो प्रवेश !! महाकवि ने समस्या के साथ ही उसका समाधान भी देने का यत्न किया है। सच में विज्ञान की यह चरमोन्नति मनुष्य के सामने एक बड़ा प्रश्नवाचक चिह्न बनकर खड़ी है। प्रश्न है क्यों नहीं सुलझती समस्या? क्यों नहीं मनुष्य को सुख मिलता? इसलिए कि यह विज्ञान अधूरा है, केवल जड़पदार्थ के पीछे लगा है । इस प्रकृति में छिपी वास्तविक शक्ति को उसने समझा नहीं, फिर ये सारी उलझनें और भेद कैसे खुलेंगे ? उत्तर यह है कि जब प्रकृति और ज आत्मा दोनों को साथ रखकर खोज होगी । इसी को अध्यात्मज्ञान या आत्मज्ञान कहते हैं ।
हमारी धारणा यह है कि अध्यात्मवाद में निश्चितरूपेण लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार की उलझनों के समाधान की पूर्ण शक्ति विद्यमान है। चोरी को, भ्रष्टाचार को, अनाचार, अत्याचार और व्यभिचार को अध्यात्मवाद ही दूर कर सकता है, कोई राजनैतिक दल या शक्तिशाली राज्यप्रणाली दूर नहीं कर सकती। उपनिषद् काल में जब अध्यात्मवाद का प्रचार था तब लोगों के चरित्र बहुत ऊंचे थे। आपको एक कथा से विषय सुस्पष्ट हो सकेगा।
विदुर जी महाराज आज से लगभग ५ सहस्र वर्ष पूर्व संसार भर में घूमकर स्यात इसी देहली में महाराज धृतराष्ट्र के पास पहुंचे तो महाराज ने कहा, “विदुर जी ! सारा संसार घूमकर आये हैं आप, कहां-कहां पर क्या देखा आपने ? ”
विदुर जी बोले, “राजन् कितनी आश्चर्य की बात देखी है मैंने, सारा संसार लोभ की श्रृंखलाओं में फंस गया है। लोभ, क्रोध, भय के कारण उसे कुछ भी नहीं दिखाई देता, पागल हो गया है । आत्मा को वह जानता नहीं।”
तब एक कथा उन्होंने सुनाई। एक वन था बहुत भयानक, उसमें भूला भटका हुआ एक व्यक्ति जा पहुंचा। मार्ग उसे मिला नहीं । परन्तु उसने देखा कि वन में शेर, चीते, रींछ, हाथी और कितने ही पशु दहाड़ रहे हैं। भय से उसके हाथ-पांव कांपने लगे। बिना देखे वह भागने लगा। भागता – भागता एक स्थान पर पहुंच गया। वहां देखा कि पांच विषधर सर्प फन उठाये फुंकार रहे हैं। उनके पास ही एक वृद्ध स्त्री खड़ी है, महान् भयङ्कर, सांप इसकी ओर लपका तो वह फिर भागा और अन्त में हांफता हुआ एक गढ़े में जा गिरा जो घास और वृक्षों से ढका पड़ा था। सौभाग्य से एक बड़े वृक्ष की शाखा उसके हाथ में आ गई। उसको पकड़कर वह लटकने लगा, तभी उसने नीचे देखा कि एक कुंआ है और उसमें एक बहुत बड़ा सर्प – एक अजगर मुख खोले बैठा है। उसे देखकर वह कांप उठा, शाखा को दृढ़ता से पकड़ लिया कि गिरकर अजगर के मुंह में न जा पड़े । परन्तु ऊपर देखा तो उससे भी भयङ्कर दृश्य था । छः मुखवाला एक हाथी वृक्ष को झंझोड़ रहा था और जिस शाखा को उसने पकड़ रखा था उसे श्वेत और काले रंग के दो चूहे काट रहे थे । भय से उसका रंग पीला पड़ गया परन्तु तभी मधु की एक बूंद उसके होठों पर आ गिरी। उसने ऊपर देखा । वृक्ष के ऊपर वाले भाग में मधुमक्खियों का एक छत्ता लगा था, उसी से शनैः शनैः शहद की बूंद गिरती थी । इन बूंदों का स्वाद वह लेने लगा । इस बात को भूल गया कि नीचे अजगर है। इस बात को भी भूल गया कि जिस शाखा से वह लटका है उसे श्वेत और काले चूहे काट रहे हैं और इस बात को भी कि चारों ओर भयानक वन है उसमें भयंकर पशु चिंघाड़ रहे हैं ।
धृतराष्ट्र ने कथा को सुना तो कहा, “विदुर जी ! यह कौन से वन की बात कहते हैं? कौन है यह अभागा व्यक्ति जो इस भयानक वन में पहुंचकर संकट में फंस गया ?” ”
विदुर जी ने कहा, राजन् ! यह संसार ही वह वन है। मनुष्य ही वह अभागा व्यक्ति है। संसार में पहुंचते ही वह देखता है कि इस वन में, रोग, कष्ट और चिन्तारूपी पशु गर्ज रहे हैं। यहीं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहङ्कार के पांच विषधर सर्प फन फैलाये फुंकार रहे हैं। यहीं वह बूढ़ी स्त्री रहती है जिसे वृद्धावस्था कहते हैं और जो रूप तथा यौवन को समाप्त कर देती है। इनसे डरकर वह भागा, वह शाखा जिसे जीने की इच्छा कहते हैं हाथ में आ गई । इस शाखा से लटके-लटके उसने देखा कि नीचे मृत्यु का महासर्प मुंह खोले बैठा है । वह सर्प जिससे आज तक कोई भी नहीं बचा न राम न रावण न कोई राजा न महाराजा, न कोई धनवान् न कोई निर्धन, न मजदूर न पूंजीपति कोई भी कालरूपी सर्प से आज तक बचा नहीं और छह मुखवाला हाथी जो इस वृक्ष को झंझोड़ रहा था वह वर्ष है, छः ऋतु ही उसके मुख हैं। लगातार वह इस वृक्ष को झंझोड़ता रहता है और इसके साथ ही काले और श्वेत रंग के चूहे इस शाखा को तीव्रता से कुरेदते हैं ये रात और दिन हैं जो प्रतिदिन आयु को छोटा किये देते हैं । कवि की यह वाणी कितनी सार्थक है :
गाफिल तुझे घड़ियाल यह देता है मुनादी ।
गर्दू ने घड़ी उम्र की इक और घटा दी । और यह शहद की बूंद जो टपक रही थी वह है आशा और तृष्णा, जीने की आशा । “जीता रहूं, पीता रहूं” यह आशा है । इस अवस्था में लटक रहा है मनुष्य । कभी-कभी नीचे के सर्प और ऊपर के हाथी और चूहों को देखकर घबराता भी है।
जीवनरूपी शाखा कटती जाती है निरन्तर, और वन में दहाड़ रहे हैं पशु ! ऐसे व्यक्ति के लिए सुख कहां, शान्ति कहां?
बालाये आसमां नहीं, जेरे जमीं नहीं ।
राहत है जिसका नाम वह ऐ दिल कहीं नहीं ॥ शान्ति और सन्तोष कहीं दिखाई नहीं देता। यदि है तो बता दो । ऐसी अवस्था में मनुष्य पुकारता है, पूछता है कि मेरे बचाव का मार्ग है या नहीं ? उत्तर है कि मार्ग है कौन-सा मार्ग है ? और किस प्रकार मनुष्य विवश होकर पुकारता है उसे शंकराचार्य के शब्दों में सुनियेकथं तरेयं भवसिन्धुमेतं, का वा गतिर्फे कतमोऽस्त्युपायः । जाने न किञ्चित्कृपयाव मां भोः, संसारदुःखक्षतिमातनुष्ठ ॥
(वि०चू०)
मैं इस संसार – समुद्र को कैसे तरूंगा? मेरी क्या गति होगी? क्या इसका कोई उपाय है? मैं तो जानता नहीं । प्रभु तू ही मार्ग बता कि संसार के दुःखों से कैसे बच सकूंगा।
यह है उसकी पुकार ! यह पुकार उस भयानक जंगल में गूंजी तो आवाज आई
मा भैष्ट विद्वंस्तव नास्ति नाशः, संसारसिन्धोस्तरणेऽस्त्युपायः । येनैव याता यतयोऽस्य पारं, तमेव मार्गं तव निर्दिशामि ॥
अरे ओ दुःखी मनुष्य ! विनाश से भयभीत न हो । तेरा विनाश नहीं होगा, संसार से पार जाने का उपाय है । जिस मार्ग को अपनाकर यति लोग, योगी, सन्त और महात्मा लोग इस समुद्र से पार गये।
जब यह ध्वनि उसने सुनी तो चारों ओर आश्चर्य से देखा । आश्चर्य के साथ उसने सोचा क्या वस्तुतः कोई मार्ग है ?
निश्चितरूपेण ऐसा मार्ग है। यह है वेदानुमोदित उपनिषदों का अध्यात्मवाद।
अध्यात्मवाद क्या और क्यों ?
स्मरण रखिये कि इसके अतिरिक्त दूसरा कोई मार्ग नहीं । कुछ बालकबुद्धि लोग कहेंगे कि क्या आपका यह अध्यात्मवाद संसार की सभी समस्याओं को हल कर सकता है? क्या वह अन्न की कमी को पूर्ण कर सकता है ? इन शक्तियों को जो एक दूसरे का विनाश करने के लिए तुली बैठी हैं रोक सकता है? क्या इन गृद्धों को समाप्त कर सकता है जो हमारे देश की सीमाओं पर इस प्रतीक्षा में बैठे हैं कि कब यह विशाल भारत दुर्बल हो और कब उसे नोच-नोचकर खायें ? क्या वह आर्थिक समस्याओं को, मजदूर और पूंजीपति की समस्या को हल कर सकता है ? यदि नहीं कर सकता तो फिर यह संसार-सागर से पार कैसे ले जा सकता है ?
ऐसे भाइयों को, ऐसी बहनों और माताओं को हम दावे के साथ कहना चाहेंगे कि हां वेद और उपनिषदों का अध्यात्मवाद यह सब कुछ समाप्त कर सकता है। जो लोग यह समझते हैं कि वह ऐसा नहीं कर सकता वे यही नहीं समझ पाये कि अध्यात्मवाद है क्या ?
यह बात हम बड़े ही विश्वासपूर्ण हृदय से कहते हैं और उस इतिहास के आधार पर कहते हैं जो आज भी विद्यमान है। भारत में महाराज अश्वपति उस समय राज्य कर रहे थे। एक बहुत बड़ा वैश्वानर यज्ञ उसकी राजधानी में होने वाला था, पांच महानुभाव ब्रह्मज्ञान की खोज में राजा अश्वपति के पास पहुंचे। राजा ने उन्हें कहा कि आपको भी उतना ही फल मिलेगा, जितना दूसरे ऋषियों को मिलेगा । परन्तु ब्राह्मण ने धन लेने से इन्कार किया । तब महातेज अश्वपति ने सोचा होगा, इस अस्वीकृति से कि यह हो सकता है कि उन्होंने समझा होगा कि मैं राजा हूं । हर प्रकार का धन मेरे कोष में आता है। इसलिए ये ब्राह्मण और महात्मा मेरा दान नहीं लेते । इन्हें संदेह है कि यह धन अच्छे लोगों का कमाया हुआ नहीं। तभी आगे बढ़कर पूरे विश्वास के साथ उन्होंने कहा- सुनिये महात्मा गण !
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