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इतिहास प्रदूषण Itihas Pradushan
Rs.110.00Rs.100.00Sold By : The Rishi Mission Trustइतिहास-प्रदूषण
इतिहास शास्त्र मानव-समाज के लिए प्रेरणा तथा ऊर्जा प्राप्ति का बहुत बड़ा स्रोत है । आबाल, वृद्ध, शिक्षित, अशिक्षित, सब प्रकार के मनुष्यों को जीवन निर्माण तथा सुधार के लिए इतिहास के प्रेरक प्रसंगों से उत्साह तथा स्फूर्ति प्राप्त होती है। जीवन दर्शन के गूढ़ व शुष्क विषय भी इतिहास के दृष्टान्त देकर रोचक व सरल बनकर सबकी समझ में आ जाते हैं, परन्तु इतिहास प्रदूषण तथा इतिहास में प्रक्षेप करके किसी भी जाति, संगठन व वर्ग को पतनोन्मुख किया जा सकता है। विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत में यही कुछ तो किया । तुर्की, पठानों, मुगलों ने तो भारत की ज्ञान-राशि को नष्ट किया ही, गोरी, ईसाई जातियों ने तो बहुत चतुराई से योजनाबद्ध ढंग से हमारे धर्म, दर्शन, साहित्यिक ग्रन्थों तथा इतिहास की सामग्री को अनूदित, सम्पादित करके प्रदूषित करने का विनाशकारी अभियान चलाकर हमारे आत्मगौरव व स्वाभिमान पर करारा वार किया। यह एक व्यापक विषय है । यह एक लम्बी व दुखद कहानी है ।
महर्षि दयानन्द सरस्वती पहले भारतीय विचारक, सुधारक, विद्वान् व देशभक्त थे जिन्होंने इस प्रदूषण के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ा और देशवासियों को जागरूक किया। उनकी शिष्य परम्परा के अनेक विद्वानों यथा पं० गुरुदत्त, पं० लेखराम, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, स्वामी वेदानन्द, पं० धर्मदेव (स्वामी धर्मानन्द), पं० गंगाप्रसाद द्वय, पं भगवद्दत्त, पं० चमूपति, आचार्य उदयवीर ने इस दिशा में जो कार्य किया है उसका कोई मूल्यांकन तो करे । ‘स्वामी वेदानन्द जी कहा कहते थे कि हमारे साहित्य में मिलावट ( प्रक्षेप) तो हुई ही, हटावट भी होती रही ।
लोकमान्य तिलक के गुरु पोंगापन्थी विष्णु शास्त्री चिपलूणकर महोदय ने अपने प्रसिद्ध मराठी ग्रन्थ निबन्धमाला में ऋषि पर व्यंग्य कसते हुए लिखा है कि यह व्यक्ति अपने व्याख्यानों में बात-बात पर अपने विरोधियों को जुक्ति (युक्ति) व प्रमाण से बात करने के लिए कहता है। उसका यह कथन ठीक है। महर्षि ने युक्ति व प्रमाण से बात करने की आर्यसमाज में परम्परा चलाई। हम बाल्यकाल से आर्य विद्वानों के मुख्य से ‘युक्ति व प्रमाण’ से बात करने की सीख सुनते आ रहे हैं। आर्यसमाजी विद्वानों की पहचान युक्ति व प्रमाण देने व मांगने से होती रही है।
अब गत कई वर्षों से आर्यसमाज में घुसपैठ करके कुछ लेखकों ने आर्यसमाज के इतिहास में बड़ी चतुराई से यूरोपियन ईसाई लेखकों की शैली से इतिहास प्रदूषण का अभियान छेड़ कर आर्यसमाज की यह पहचान समाप्त सी कर दी है। मीठा विष इस ढंग से, इस मात्रा में आर्यों को पिलाया गया कि आर्यसमाज को इतिहास-प्रदूषण, प्रक्षेप व हटावट का पता ही नहीं चलता।
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सत्यार्थ प्रकाश (41 वा संस्करण) satyarth prakash
Rs.175.00Rs.150.00Sold By : The Rishi Mission Trustइस संस्करण के संबंध में !!! परोपकारिणी सभा अजमेर में महर्षि दयानंद सरस्वती के प्राय: सभी ग्रंथों की मूल प्रतियां है, इनमें से सत्यार्थ प्रकाश की दो प्रतियां है, इनके नाम “मूलप्रति” तथा “मुद्रणप्रति” रखे हुए हैं, मूलप्रति से मुद्रणप्रति तैयार की गई थी, मुद्रणप्रति (प्रेस कापी) के आधार पर सन १८८४ इसवी में सत्यार्थप्रकाश का द्वितीय संस्करण छपा था, इतने लंबे अंतराल में विभिन्न संशोधकों के हाथों इतने संशोधन, परिवर्तन तथा परिवर्धन हो गए कि मूलपाठ का निश्चय करना कठिन होने लग गया था, मूल प्रति से मुद्रण प्रति लिखने वाले महर्षि के लेखक तथा प्रतिलिपिकर्ता ने सर्वप्रथम यह फेरबदल की थी, महर्षि अन्य लोकोपकारक कार्यों में व्यस्त रहने से तथा लेखक पर विश्वास करने से मुद्रणप्रति को मूलप्रति से अक्षरश: से नहीं मिला सके, परिणामत: लेखक नें प्रतिलिपि करते समय अनेक स्थलों पर मूल पंक्तियां छोड़कर उनके आशय के आधार पर अपने शब्दों में महर्षि का भाव अभिव्यक्त कर दिया, अनेक स्थानों पर भूल से भी पंक्तियां छूट गई तथा अनेक पंक्तियां दोबारा भी लिखी गई, अनेकत्र मूल शब्द के स्थान पर पर्यायवाची शब्द भी लिख दिए थे मुंशी समर्थदान नें भी पुनरावृति समझकर 13 वें 14 वें समुल्लास की अनेक आयतें और समीक्षाएं काट दि , यह सब करना महर्षि दयानंद सरस्वती के अभिप्राय से विरुद्ध होता चला गया,
परोपकारिणी सभा के अतिरिक्त अन्य प्रकाशको के पास यह सुविधा कभी नहीं रही कि वे मूलप्रति से मिलान करके महर्षि के सभी ग्रंथों का शुद्धतम पाठ प्रकाशित कर सकें परोपकारिणी सभा की ओर से भी कभी-कभी एक मुद्रणप्रति (प्रेस कापी) से ही मिलान करके प्रकाशन किया जाता रहा मूलप्रति की ओर विशेष दृष्टिपात नहीं किया गया (किंतु किसी किसी ने कहीं-कहीं पाठ देखकर सामान्य परिवर्तन किए हैं) और न कभी यह संदेह हुआ कि दोनों प्रतियों में कोई मूलभूत पर्याप्त अंतर भी हो सकता है,
गत अनेक शताब्दियों में ऋषि मुनिकृत ग्रंथों में विभिन्न मतावलम्बियों ने अपने -अपने संप्रदाय के पुष्टियुक्त वचन बना बनाकर प्रक्षिप्त कर दिए हैं इसके परिणामस्वरुप मनुस्मृति, ब्राह्मणग्रंथ, रामायण, महाभारत, श्रोतसूत्र और गृहसूत्र आदि ग्रंथों में वेददि शास्त्रों की मान्यताओं के विपरीत भी लेख देखने को मिलते हैं इसी संभावना का भय है महर्षि दयानंद सरस्वती के ग्रंथों में भी दृष्टिगोचर होने लगा था इस भय के निवारणार्थ परोपकारिणी सभा ने निश्चय किया कि महर्षि के हस्तलेखों से मिलान करके सत्यार्थ प्रकाश आदि सभी ग्रंथों का शुद्ध संस्करण निकाला जाए इसीलिए अनेक विद्वानों के सहयोग और सत्परामार्श के पश्चात संस्करण में निम्नलिखित मापदंड अपनाए गए हैं—
- मूले मूलाभावादमूलं मूलम् ( सांख्य १.६७ ) कारण का कारण और मूल का मूल नहीं हुआ करता, इसलिए सबका मूलकारण होने से सत्यार्थप्रकाश की मूलप्रति स्वत: प्रमाण है
2. मुद्रणप्रति जहां तक मूलप्रति के अनुकूल है, वहां तक उसका पाठ मान्य किया है, प्रतिलिपिकर्ता द्वारा श्रद्धा अथवा भावुकतावश बढ़ाये गए अनावश्यक और अनार्ष वाक्यों को अमान्य किया है
3. जहां मुद्रणप्रति में मूलप्रति से गलत पाठ उतारा और महर्षि उसमें यथामति संशोधन करने का यत्न किया, ऐसी स्थिति में मूलप्रति का पाठ उससे अच्छा होने से उसे स्वीकार किया गया है
4.मुद्रण प्रति में महर्षि जी ने जहाँ-जहाँ सव्ह्स्त से आवश्यक परिवर्तन परिवर्तन किए हैं वे सभी स्वीकार किए हैं
5. सन १८८३ से १८८४ तक प्रकाशित हुए सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय संस्करण में प्रूफ देखते समय मुद्रणप्रति के पाठ से हटकर जो परिवर्तन-परिवर्धन किए गए थे वे भी प्राय: सभी अपनाएं हैं
कुछ विद्वान महर्षि की भाषा में वर्तमान समय अनुकूल परिवर्तन करने का तथा भाव को स्पष्ट करने के लिए कुछ शब्द बढ़ा देने का व्यर्थ आग्रह किया करते हैं यह अनुचित है अतः इस संस्करण में ऐसा कुछ नहीं किया गया है
इस प्रकार इस ग्रंथ को शुद्धतम प्रकाशित करने के लिए विशेष यत्न किया गया है पुनरपि अनवधानतावश वस्तुतः कोई त्रुटि रह गई हो तो शुद्धभाव से सूचित करने पर आगामी आवर्ती में उसे शुद्ध कर दिया जाएगा क्योंकि ऐसे कार्यों में दुराग्रह और अभिमान के छोड़ने से ही सत्यमत गृहित हो सकता है इसी में विद्वता की शोभा भी है
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