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Divy Jyotish Vigyan
Rs.300.00Rs.250.00Sold By : The Rishi Mission Trustरथूल शरीर की दिव्य की दिव्य ज्योतियाँ
(सात्विक, राजस, तामस भेद से)
स्थूल शरीर में ६६ प्रकार की दिव्य ज्योतियों का साक्षात्कार और इनके द्वारा आत्मानुभूति
इस दिव्य ज्योति विज्ञान ग्रन्थ में ज्योतियों के द्वारा आत्मा-परमात्मा एवं प्रकृति और उसके कार्यो के तत्त्वज्ञान का वर्णन किया गया है। सर्वप्रथम हम स्थूल जगत् और स्थूल शरीर का वर्णन करेंगे। सृष्टि उत्पन्न होने के पश्चात जब अनेक वर्षो में हमारी पृथ्वी प्राणियों के उत्पन्न करने योग्य हो गयी, तब जैवी सृष्टि का प्रारम्भ हुआ। उस जैवी सृष्टि में सर्वप्रथम प्राणियों में मनुष्य सर्वोत्तम माना गया, मनुष्य शरीर में स्थूल पंचभूतों को उपादानकरण माना गया है। उन पंचभूतों में अग्निभूत सहकारी उपादान-करण के रूप में हुआ। जिस प्रकार वायुभूत परिणत होकर शरीर में प्राण के रूप में तेज अथवा ज्योति के रूप में परिणत होकर पोषक रूप में जीवन का आधार बना है।
जिस प्रकार अग्नि पृथ्वी के अन्दर रहकर सर्व पदार्थो का उसमें पाक करती है इसी प्रकार शरीर में भी अग्नि सर्व धातुओं और पदार्थो का पाक करती है। शरीर में इसी की उष्णता देखने मे आती है। अन्न-जलादि का पाक करके इससे रूधिर, रज, वीर्य, मल, मूत्र, तैयार करना इसी का प्रधान कार्य है। यह अग्नि हमारे शरीर में दस भागों में विभक्त होकर दस स्थानो में ठहरी है और हमारे जीवन का आधार बनी हुई है। इसके बिना जीवन का बना रहना असम्भव है। इसका अभाव होने पर मृत्यु समीप आने लगती है। इसकी उष्णता समाप्त होने पर मानव अथवा प्राणीमात्र का जीवन समाप्त हो जाता है
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Hathyog Vidya
Rs.200.00Rs.150.00Sold By : The Rishi Mission Trustयोग-साधना अति प्राचीन काल से ही अत्यन्त लोकप्रिय रही है, आज भी है और आगे भी रहेगी इसमें किंचित् मात्र सन्देह नहीं है। हमारे प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों का यह एक महान् अवदान सिद्ध हुआ है। भारतीय मोक्ष- साधना के क्षेत्र में योग एक सार्वभौम तथा सर्वोत्तम साधन पद्धति है। हमारे दर्शन आदि शास्त्रों में या धर्म-ग्रन्थों में किसी न किसी विषय पर या किसी अंश में वाद-विवाद बना ही रहता है। परन्तु योग ही एक ऐसा विषय है जिसमें वाद-विवाद के लिये कोई गुंजाईश नहीं है; क्योंकि योग तर्क का विषय नहीं है किन्तु अनुभूति का विषय है। इसलिये योग कहता है कि ऐसा करो, ऐसा करने से उसका फल ऐसा मिलेगा । यही कारण है कि औपनिषदिक काल के ऋषि-मुनि लोग भी इस योग-साधना में कुशल अभ्यासी बन कर योगसिद्ध योगी बन जाते थे। योगाभ्यास से होने वाले लाभों को भी वे मुक्तकण्ठ से व्यक्त करते थे। जैसे कहा है
‘न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम’ ।। श्वेता. २ / १२ ।।
अर्थात् जिस योगी ने योग-साधना का अभ्यास भली प्रकार से किया है और उस योग-साधना के द्वारा योगाग्निमय शरीर प्राप्त कर लिया है उस योगी को कोई भी रोग नहीं होता है। उसके पास शीघ्र बुढ़ापा नहीं आता है और उस योगी को मृत्यु भी शीघ्र प्राप्त नहीं होती है। यही योग की विशेषता है।’ इसे बहिरंग योग या हठयोग विद्या के चमत्कार कहे तो अत्युक्ति नहीं होगी। योग के इन्हीं महान् लाभों तथा गुणों के कारण ही आज ‘योग- चिकित्सा’ नामक एक नयी चिकित्सा पद्धति भी विकसित हुई है।
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