वैशेषिक दर्शन प्रशस्तपादभाष्य vaisheshik Darshan prashastpadbhashya
Rs.300.00 Rs.285.00
श्रीमन्महर्षिकणादविरचिते
वैशेषिकदर्शने
श्रीमन्महर्षिप्रशस्तदेवाचार्यविरचितं
प्रशस्तपादभाष्यम्
‘प्रकाशिका’ हिन्दीव्याख्याविभूषितम्
व्याख्याकार
आचार्य ढुण्ढिराज शास्त्री
वैशेषिकसूत्रव्याख्याकार श्रीनारायण मिश्र एम.ए. संस्कृत तथा पालिविभाग भारती महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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पातञ्जलयोगप्रदीप श्री स्वामी ओमानंद तीर्थ patanjalyogpradeep
Rs.300.00Rs.250.00Sold By : The Rishi Mission Trustपूज्य श्री स्वामी जी महाराज ने योग के यथार्थ रहस्य तथा स्वरूप को मनुष्य मात्र के हृदयङ्गम कराने के लिये ‘पातञ्जलयोगप्रदीप’ नामक पुस्तक लिखी थी। उसका प्रथम संस्करण अनेक वर्षों से अप्राप्य हो रहा था। अब उसकी द्वितीयावृत्ति ‘आर्य-साहित्य मण्डल’ द्वारा छपकर पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है । इस बार श्री स्वामी जी महाराज ने इसमें अनेक विषय बढ़ा दिये हैं और योग सम्बन्धी अनेक चित्रों का समावेश किया है। इससे ग्रन्थ प्रथम संस्करण की अपेक्षा लगभग दुगुना हो गया है । इस ग्रन्थ में योगदर्शन, व्यासभाष्य, भोजवृत्ति और कहीं कहीं योगवार्तिक का भी भाषानुवाद दिया है। योग के अनेक रहस्य – योग सम्बन्धी विविध ग्रन्थों और स्वानुभव के आधार पर भली प्रकार खोले हैं, जिससे योग में नये प्रवेश करने वाले अनेक भूलों से बच जाते हैं। श्री स्वामी जी ने इसकी ‘षड्दर्शन-समन्वय’ नाम्नी भूमिका में मीमांसा आदि छहों दर्शनों का समन्वय बड़े सुन्दर रूप से किया है । महर्षि दयानन्द सरस्वती को छोड़कर अर्वाचीन आचार्य तथा विद्वान् छहों दर्शनों में परस्पर विरोध मानते हैं, किंतु श्री स्वामी जी महाराजने प्रबल प्रमाणों तथा युक्तियों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि दर्शनों में परस्पर विरोध नहीं है। श्री स्वामी जी महाराज इस प्रयास में पूर्ण सफल हुए हैं तथा कपिल और कणाद ऋषि का अनीश्वरवादी न होना, मीमांसा में पशु-बलिका निषेध, द्वैत-अद्वैत का भेद, सृष्टि उत्पत्ति, बन्ध और मोक्ष, वेदान्त-दर्शन अन्य दर्शनों का खण्डन नहीं करता, सांख्य और योग की एकता आदि कई विवादास्पद विषयों का विवेचन स्वामी जी महाराज ने बड़े सुन्दर ढंग से किया है, इसके लिये स्वामी जी महाराज अत्यन्त धन्यवाद के पात्र हैं। दर्शनों और उपनिषद् आदिमें समन्वय दिखलाने और योग सम्बन्धी तथा अन्य कई आध्यात्मिक रहस्यपूर्ण विषयों को साम्प्रदायिक पक्षपात से रहित होकर अनुभूति, युक्ति, श्रुति तथा आर्ष ग्रन्थों के आधार पर खोलते हुए स्वामी जी ने अपने स्वतन्त्र विचारों को प्रकट किया है । अतः इन विचारों का उत्तरदायित्व श्री स्वामी जी महाराज पर ही समझना चाहिये न कि आर्य साहित्य-मण्डलपर । पुस्तक को अधिक उपयोगी बनाने के उद्देश्य से स्वामी जी के आदेशानुसार यथोचित
स्थानों में चित्र भी दिये गये हैं। कुछ आसनों के चित्र पं० भद्रसेनजी के यौगिक व्यायाम-संघ के ब्लाकों से लिये गये हैं। जिनके लिये पं० भद्रसेन जी मण्डल की ओर से धन्यवाद के पात्र हैं।
यह इस पुस्तक का तृतीय संस्करण है जो गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित हुआ है।
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योग दर्शन महर्षि पतंजलि प्रणीत (व्यास / भोज वृति सहित ) Yoga Darshan Maharishi Patanjali Praneet (including Vyasa / Bhoja Vriti)
Rs.300.00Rs.250.00Sold By : The Rishi Mission Trustअत्यन्त दयालु सच्चिदानन्द स्वरूप परमपिता परमात्मा ने अपने अमृत पुत्रों (मानवों) को अपने कल्याण के लिये सब प्रकार का ज्ञान वेदों में दिया है। परमपिता परमात्मा ने वेदों में मानव को शुभ-अशुभ ( पाप व पुण्य) के कर्मों का ज्ञान देकर दुःख (नरक) से बचने के व सुख (स्वर्ग) प्राप्ति के सब साधन बताये हैं। वहीं उस दयालु दाताने अपने से मिलने (मोक्षप्राप्ति) के साधन का भी ज्ञान वेदों में दिया है। उसी ज्ञान के अनुसार सृष्टि के आदि से लेकर महाभारत पर्यन्त सारा संसार सुखी, समृद्ध व ऐश्वर्यशाली था । एवं उसी ज्ञान के अनुसार सृष्टि के आदि से लेकर महाभारत पर्यन्त हमारे देश में अनेकों ऋषि मुनियों ने संसार के बनाने वाले व चलाने वाले उस महान परमपिता परमात्मा का साक्षात्कार कर मोक्ष प्राप्त किया ।
दुर्योधन की नीचता व युधिष्ठिर की मूर्खता के कारण महाभारत का युद्ध हुआ। उस युद्ध ने सारा विनाश कर डाला । जिससे संसार में अविद्या रूपी अन्धेरा छा गया। वेद शास्त्रों का पढ़ना पढ़ाना समाप्त हो गया, धर्म व परमात्मा के नाम पर मूर्खों व धूर्तों ने संसार को नरकगामी बना दिया ।
लगभग पांच हजार वर्षों के पश्चात् परमपिता परमात्मा की असीम कृपा से महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म हुआ, जिसने वेदशास्त्र के पुरातन ज्ञान को पुनः मानव मात्र के कल्याणार्थ प्रचारित एवं प्रसारित किया । परमपिता परमात्मा की कृपा से व महर्षि दयानन्द के पुरुषार्थ से जहां मानव को सच्चे धर्म का ज्ञान हुआ, वहां मोक्षप्राप्ति की इच्छा रखने वाले मुमुक्षुजनों को महर्षि पातञ्जल मुनि के योगशास्त्र का महर्षि व्यास द्वारा किये गये भाष्य के अनुसार योगसाधना का सही ज्ञान प्राप्त हुआ ।
उसके पश्चात् ऋषि अनुयायी श्री स्वामी विज्ञानाश्रम जी महाराज ने इस शास्त्र के व्यास भाष्य का व भोजवृत्ति का भाषानुवाद कर प्रकाशन करवाया । बहुत लम्बे समय से पुनः प्रकाशन न होने के कारण योगमार्ग के पथिक जिज्ञासुओं को यह ग्रन्थ प्राप्त नहीं हो रहा था । जिससे साधना की इच्छा रखने वाले साधक अज्ञानी, धूर्त एवं ठग जो योगी बनने का दम भरते हैं, उनके जाल में फंस कर अपना समय व धन का नाश कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं कि “मैं ब्रह्मा से लेकर जैमिनी पर्यन्त ऋषि मानता हूं।” इन पांच हजार वर्षों में कोई ऐसा ऋषि नहीं हुआ जिसने ब्रह्म का साक्षात्कार किया हो । पर आज देश के कोने कोने में योग के शिबिर लग रहै हैं । पौराणिक बन्धुओं में नकली ब्रह्मज्ञानियों की बाढ़ सी आई हुई है। तो आर्य समाज भी इस दोड़ में पीछे रहना नहीं चाहता। इन में भी बहुत से ब्रह्मज्ञानी होने का झूठा दम भर रहे हैं । =
इस स्थिति को देखते हुए, कि यह परम पवित्र योगविद्यारूपी ऋषियों का ज्ञान फिर से लुप्त न हो जावें व योग मार्ग पर चलने वाले साधकों को योगविषय का सच्चा ग्रन्थ प्राप्त हो सके, इसलिये इस शास्त्र को पुनः प्रकाशित करवाया है। इस ग्रन्थ को महर्षि व्यासप्रणीत व राजर्षि भोजदेवप्रणीत व महर्षि दयानन्द द्वारा अपने ग्रन्थों में किये गये योग सूत्रों की व्याख्या सहित प्रकाशित किया गया है।
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न्यायदर्शनम वात्स्यायन भाष्य हिन्दी nyaydarshanm vatsyayanbhasy (hindi)
Rs.700.00Rs.600.00Sold By : The Rishi Mission Trustusefulness of philosophy
What is man? Who is it? What is the goal of his life? What is this world? How does it originate? Who is the creator of this? What kind of life should a man lead? What is God and Karma? Many thoughts etc. have started arising in the human being since the beginning, ever since the power of thinking has come in it, they have been putting in doubt, in the opinion of Tatvdarshi, man can have philosophy of these subjects, this is called Indian Tatvdarshi right vision or philosophy. Karma does not bind a man when he has philosophy, but those who do not have this right philosophy, they remain trapped in the bondage of existence, the meaning of saying is that philosophy leads a man to the goal by giving satisfactory answers to all the above questions.
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