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संध्या क्या क्यों और कैसे ? sandhya kya kyon aur kaise ?

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संध्या की महत्ता

पञ्च महायज्ञों में सबसे पहला ब्रह्म-यज्ञ है। ब्रह्म-यज्ञ का मुख्य भाग है संध्या । ‘महायज्ञ’ का ‘महा’ शब्द बताता है कि यह महायज्ञ बड़ा यज्ञ है जिसमें सैकड़ों कृत्यों का करना आवश्यक होगा और बहुत-सा धन तथा रुपया लगता होगा। वस्तुतः यह बात नहीं है। यह पञ्च महायज्ञ बहुत छोटा है। इसको ‘महायज्ञ’ कहने का हेतु यह है कि मनुष्य की इति कर्त्तव्यता में यह सबसे प्रथम है और इसके करने से मनुष्य का आचार और अध्यात्म बनता है। –

संध्या का अर्थ है ध्यान करना, अर्थात् परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के विषय में इस प्रकार सोचना कि हम परमात्मा के अस्तित्व का इस जगत् में और अपने जीवन में अनुभव कर सकें। इसलिए ‘मन से सोचना’ संध्या का मुख्य उद्देश्य है। शेष सब कृत्य गौण हैं, मौलिक नहीं।

संध्या के तीन भाग हैं – (१) शारीरिक- अर्थात् स्नानादि करके एकान्त में जहाँ ऊँची-नीची भूमि न हो, कोलाहल न हो, पूरी शान्ति विराजती हो, आसन जमाकर बैठना। हथेली पर पानी लेकर तीन ‘आचमन’ करना या शरीर के अन्यान्य अवयवों पर छींटे देना।

(२) दूसरा भाग–वाचिक, अर्थात् ऊपर के लिखे कृत्यों को करते हुए नियत मन्त्रों को पढ़ना ।

– (३) तीसरा भाग – मानसिक अथवा भीतरी । अर्थात् अर्थ समझते हुए ईश्वर के गुणों का चिन्तन करना। इनमें सब से आवश्यक भाग है तीसरा । यदि यह तीसरा भाग उचित रीति से सम्पन्न न किया जाए, तो सन्ध्या सर्वथा निष्फल हो जाती है

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