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सांख्यदर्शनम sankhyadarshanam

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ओ३म् सांख्यदर्शनम्

(आनन्दभाष्यसहितम् )

प्राक्कथन

महर्षि कपिल द्वारा प्रणीत सांख्यदर्शन में छह अध्याय हैं। सूत्रों की संख्या – ४५१ और प्रक्षिप्त सूत्रों को मिलाकर (४५१ + ७६=)५२७ है ।

इस दर्शन का उद्देश्य प्रकृति और पुरुष की विवेचना करके उनके पृथक्-पृथक् स्वरूप को दिखलाना है, जिससे जिज्ञासु व्यक्ति बन्धन के मूल कारण ‘अविवेक’ को नष्ट करके, त्रिविध दुःखों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त कर सके ।

सांख्य – शब्द

प्राय: गणनार्थक ‘संख्या ‘ शब्द से ‘सांख्य’ पद की व्युत्पत्ति मानी जाती है-पञ्चविंशतितत्त्वानां विचार: संख्या, तामधिकृत्य कृतो ग्रन्थ: ‘सांख्यः’ इति। अर्थात् पच्चीस तत्त्वों की संख्या ‘ (गणना) के आधार पर इस शास्त्र का नाम ‘सांख्य’ रखा गया है। किन्तु इस हेतु की अन्य दर्शनों में भी अतिव्याप्ति होती है क्योंकि वैशेषिक में छह या सात और न्याय में सोलह पदार्थ गिनाकर उनका विवेचन किया है ।

अतः ‘सांख्य’ का तात्पर्य समझना चाहिए, कि- ‘सम्यक् ख्यानम् = संख्या, तस्या व्याख्यानो ग्रन्थः ‘सांख्यः’ । अर्थात् त्रिगुणात्मिका प्रकृति,
पुरुष(परमात्मा और जीवात्मा) से भिन्न है, यह ज्ञान अथवा विचार ही ‘संख्या’ है। उसका व्याख्यान ग्रन्थ ‘सांख्य प्रकृति – पुरुषविवेकशास्त्र

सांख्यशास्त्र के अनुसार पच्चीस तत्त्व हैं – प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, पञ्चतन्मात्र, ग्यारह इन्द्रियाँ, पञ्चमहाभूत और पुरुष । इनके भी चार प्रकार माने जाते हैं- १. केवल प्रकृति, २. प्रकृति-विकृति उभयात्मक, ३. केवल विकृति, ४ उभयभिन्न (=प्रकृति और विकृति दोनों से भिन्न पुरुष ) ।

भ्रान्ति-निवारण

, कुछ लोग ‘ईश्वरासिद्धेः’-सांख्य १/५७ (९२) आदि सूत्रों को देखकर महर्षि कपिल को नास्तिक कहते हैं, परन्तु पूर्वापर प्रसंग को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि महर्षि कपिल परम आस्तिक हैं। उस स्थल पर सांख्यदर्शन में प्रत्यक्षप्रमाण के प्रसिद्ध लक्षण से विलक्षण लक्षण किया है “यत्सम्बन्धसिद्धं तदाकारोल्लेखि विज्ञानं तत्प्रत्यक्षम्” – सां० १/५४ (८९ ) । इस लक्षण में कोई भी करण (उपकरण) नहीं कहा जिसके द्वारा वस्तु के साथ सम्बन्ध होने से विज्ञान = बोध = प्रत्यक्ष हो सके =

 

१. चर्चा, संख्या, विचारणा ( अमर ० ) सम् + ख्या + अङ् +टाप् (‘आतश्चोपसर्गे’अष्टा०३/३/१०६) =संख्या (= सम्यक् कथनं, सप्रमाणविचारणम्) संख्या + अण् (अधिकृत्य कृते ग्रन्थे ) = साङ्ख्यम् । दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागतः । कञ्चिदर्थमभिप्रेत्य सा संख्येत्युपधार्यताम् ।। (महा.शां.३२०/८२ ) अर्थात् किसी विषय को अधिकृत करके प्रमाणों सहित उसके दोषों, गुणों और स्वरूप का विचार करना ‘संख्या’ समझना चाहिए। २. कोष्ठक के अन्दर की संख्या प्रक्षिप्त सूत्र – सहित है।
इस दीखने वाले दोष के स्पष्टीकरण के लिए अगला सूत्र है-”योगिनामबाह्यप्रत्यक्षत्वान्न दोष: “ – सां०१/५५ (९०) योगियों का आन्तरिक (=बिना करण का ) प्रत्यक्ष भी होता है, वह भी इस प्रत्यक्षलक्षण में आ जावे, इसलिए लक्षण सूत्रा में करण ( उपकरण) का ग्रहण नहीं किया। योगियों के उस आन्तरिक प्रत्यक्ष को भी प्रत्यक्ष मानना अनिवार्य है, क्योंकि उसे प्रत्यक्ष न मानें तो ईश्वरासिद्धे: -सां०१/५७(९२) ईश्वर की असिद्धि का दोष आयेगा । सांख्य में वैसा ईश्वर स्वीकार किया जाता है, जो “स हि सर्ववित् सर्वकर्त्ता” (सां०३/ ५६ ) वह ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वकर्ता है, जो वेदादि शास्त्रों में स्वीकार किया जाता है। “ईदृशेश्वरसिद्ध: सिद्धा” (सां०३/५७) इस प्रकार के ईश्वर की सत्ता तो नित्य अबाध्य है।

यह सांख्यशास्त्र, चिकित्साशास्त्र के समान चतुर्व्यूह है। जैसे चिकित्सा-शास्त्र में रोग, रोग का कारण, आरोग्य और ओषधि – ये चार प्रमुख बातें होती हैं; उसी प्रकार इस मोक्षशास्त्र में भी हेय, हेयहेतु, हान, हानोपाय – इन चार व्यूहों का वर्णन है । जिनमें त्रिविधदुःख ‘हेय’ है, उन त्रिविध दु:खों की अत्यन्त निवृत्ति ‘हान’, प्रकृति और पुरुष के संयोग से उत्पन्न अविवेक हैयहेतु’ और विवेक – ख्याति ‘हानोपाय’ है ।

इस भाष्य का दीर्घकाल से सांख्य-शास्त्र उपेक्षित रहा है। विशेषरूप से आद्य शंकराचार्य के समय से। क्योंकि उनकी मान्यता थी “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” अर्थात् एक ब्रह्म ही सत्य / वास्तविक है, जगत् में प्रतीत होने वाले पदार्थ तो मिथ्या (= स्वप्नवत् भ्रान्तिपूर्ण, असत्य ) हैं । शंकराचार्य की इस मान्यता का सबसे बड़ा विरोधी था, महर्षि कपिल का ‘सांख्यदर्शन’। क्योंकि यह सांख्यशास्त्र पुरुष (= जीवात्मा, परमात्मा) के साथ-साथ प्रकृति एवं प्राकृतिक पदार्थों की सत्यता / वास्तविकता और उपयोगिता को प्रबल तर्कों द्वारा स्पष्टता से समझाता है । अत: नवीन वेदान्तियों को आँख
में तिनके के समान खटकता रहा। क्योंकि कोई भी विचारशील पण्डित सांख्यशास्त्र के आधार पर नवीन वेदान्तियों के खण्डन में तत्पर हो सकता था। अत: नवीन वेदान्तियों ने भी प्रबलशत्रु ‘सांख्याशास्त्र’ का खण्डन प्रारम्भ कर दिया। उसका उपहास किया, महर्षि कपिल को नास्तिक बताया। सांख्यशास्त्र की अशुद्ध / सांख्यसिद्धान्तविरुद्ध व्याख्याएँ कराई गयीं; जिससे पण्डितों एवं जनता में सांख्यशास्त्र के प्रति अरुचि तथा उदासीनता होने लगी । जिस प्रकार योग एवं न्याय शास्त्रों पर विस्तृत व्याख्याएँ लिखी गयीं, वैसी सांख्य पर नहीं ।

सांख्य की सबसे पुरानी उपलब्ध टीका ‘अनिरुद्ध की वृत्ति’ है, जो अति संक्षिप्त एवं अनेकत्र सांख्यसिद्धान्त के विरुद्ध भी है ।

यह सांख्य का विरोध कुछ उसी प्रकार का था, जैसे कुरान एवं बाइबिल के प्रबल समर्थक भगवद्गीता का विरोध करते हैं। वे तो गीता को फाड़ते हैं, जलाते हैं। अनेक मुस्लिम राष्ट्रों में ‘गीता’ पुस्तक को पास रखने पर जेल या आर्थिक दण्ड दिया जाता है। जब कि गीता ने कुरान का कुछ नहीं बिगाड़ा। वह तो कुरान से लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पुरानी है। पुनरपि उसमें आत्मा की नित्यता एवं पुनर्जन्म का प्रबल प्रतिपादन उनके विरोध का कारण बनता है। ऐसी स्थिति में उन देशों में कौन गीता की व्याख्या या प्रचार करने का साहस कर सकता है ।

सांख्य शास्त्र के अध्ययन के समय में ही मेरी रुचि थी, कि ‘सांख्य’ की एक सरल, सांखसिद्धान्तों को स्पष्टता से बताने वाली एवं यथासम्भव संक्षिप्त व्याख्या तैयार की जाय । उसी के परिणामस्वरूप यह व्याख्या प्रस्तुत है। अस्तु, –

साथ ही इस व्याख्या में सांख्यशास्त्र का महत्त्व घटाने वाले कुछ प्रक्षिप्त सूत्रों का भी स्पष्टीकरण किया गया है।

आशा है यह व्याख्या सांख्य के सिद्धान्तों को समझने में विशेष सहायक होगी।

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