ऋषि मिशन न्यास परिवार में आपका हार्दिक स्वागत है, 1000 से अधिक की खरीद पर शिपिंग फ्री एवं दुर्लभ साहित्य के लिए हमारी www.rishimission.org पर जाएँ अधिक जानकारी के लिए 9314394421 पर संपर्क करें
 

Rishi Mission is a Non Profitable Organization In India

No Shortcode found

Rishi Mission is a Non Profitable Organization In India

No Shortcode found

अंग्रेज जीत रहा है angrej-jeet-raha-hai

150.00

कस्तूरी तो मृग की नाभि में ही है पर फिर भी वह जंगलों में बेसुध हो इस आस पर भटकता है कि उसे कस्तूरी मिल जाये। उसकी यही मूर्खता उसे सदैव वंचित और बेचारा बनाकर रखती है। उसकी यही जड़ता एक दिन उसके अन्त का कारण बनती है। कुछ ऐसी ही स्थिति स्वयं को पठित कहने वाले भारतीयों की भी है। जिनके पास दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भाषा है, सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है, सर्वश्रेष्ठ शिक्षण व्यवस्था है और वे इन्हीं की आस व तलाश में भटकते फिरते हैं ।

पर जहाँ तक भाषा का सवाल है, अनेकों प्रचलित हैं और प्रत्येक भाषा का भाषी स्वयं को व अपनी भाषा को श्रेष्ठ कहने में तनिक भी न हिचकिचाता है, बुद्धि यह प्रश्न उठाने को बेबस है कि आखिर श्रेष्ठ है कौन? कुछ महान् भाषाशास्त्रियों के विचार अथवा भाषा के इतिहास को देखने से यह मालूम होता है कि प्रचलित भाषायें किसी एक भाषा का अपभ्रंश अथवा ह्रास मात्र हैं। यद्यपि कुछ विचार ऐसे भी हैं जो इसे संवर्धन अथवा परिवर्धन कहते हैं पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण इस विचार को धराशायी कर देता है । झगड़ा संवर्धन का हो अथवा ह्रास का, दोनों ही पक्ष इस विषय में एक मत हैं कि मूल में भाषा एक ही थी । अब अगर और बातों को छोड़ भी दें, तब भी इतना तो तय है कि जिस भाषा से इतनी भाषायें जन्म ले सकती हैं वह अत्यन्त समृद्ध भाषा होगी । संसार उस समृद्ध भाषा को ‘संस्कृत’ नाम से जानता है। अब ऐसी समृद्धता को छोड़कर कोई कंकड़-पत्थरों में समृद्धता ढूँढता फिरे तो उसे मृग नहीं तो क्या कहेंगे ?

परन्तु आज वो दौर चल रहा है जब संस्कृत भाषा लोकभाषा नहीं है। संस्कृत जानने व समझने वाले उंगलियों पर गिने जाते हैं। ऐसे समय में उस भाषा का स्थान उसके अपभ्रंशों ने ले लिया है और वे अपभ्रंश भी अब अन्तिम साँसें लेते नजर आते हैं। पश्चिमी सभ्यतायें षड्यन्त्र के तहत उन्हें नष्ट करना चाहती हैं और कर भी रही हैं। संस्कृत जो कि भारत की सम्पत्ति है, संस्कृत जो कि भारत का गौरव है, संस्कृत जो कि भारत की संस्कृति है, उसको जड़-मूल से मिटाने का प्रयास किया जा रहा है। यह कितना सफल होगा, वह भारत का भविष्य तय करेगा और भारत का भविष्य कैसा होगा यह इसकी सफलता तय करेगी ।

आज हमारी मातृभाषा हिन्दी है | हिन्दी जो कि संस्कृत की सबसे निकटतम भाषा है। इस भाषा के शब्दों की सिद्धि भी संस्कृत व्याकरण से ही होती है । इस भाषा की लिपि भी देवनागरी है। अत: यह कहना निरर्थक न होगा कि हिन्दी के जीवित रहने से संस्कृत के जीवित रहने की सम्भावना बनी रहेगी और संस्कृत जीवित रहने से संस्कृति जीवित रहेगी । यह बात हम जानें अथवा न जानें पर पाश्चात्य भली प्रकार से जानते हैं। इसीलिये हिन्दी को मिटाने का हर सम्भव प्रयास योजनापूर्ण ढंग से किया जा रहा है। क्योंकि किसी भी देश
की संस्कृति को नष्ट करने का उपाय यही है कि उस देश की भाषा को नष्ट कर दिया जाये। भाषा नष्ट होने से उसका इतिहास नष्ट हो जाता है और इतिहास नष्ट होने से उसकी संस्कृति नष्ट हो जाती है। हिन्दी आज अनपढ़ों की भाषा समझी जाती है। पठित तो हिन्दी बोलने में शर्म अनुभव करता है। भारतीयों की गुलामी का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा ? वे शारीरिक तौर पर बेशक स्वयं को आजाद समझते हों पर मानसिक तौर पर आज भी अंग्रेजों के गुलाम हैं। उनके लिये अंग्रेजी बोलना गर्व का विषय है। वे नहीं जानते कि उनकी ये आजादी एक नई तरह की गुलामी ही है। हमारी वेशभूषा गुलाम है, हमारा व्यवहार गुलाम है, हमारे कार्य-कलाप गुलाम हैं, हमारी जीवनशैली गुलाम है, हमारी रगरग में गुलामी है, यहाँ तक कि हमारी शिक्षा भी अंग्रेजों की गुलाम बनकर रह गयी है। शिक्षा और भाषा में एक अटूट सम्बन्ध है । वह व्यक्ति कभी शिक्षित नहीं हो सकता जो भाषा पर अधिकार न रखता हो । इसलिये वैदिक व्यवस्था में शिक्षा का प्रारम्भ भाषा से किया जाता है और भाषा के प्रारम्भ को शिक्षा कहा जाता है। परन्तु आज शिक्षा ही भाषा की हत्यारी बनी बैठी है। अगर यूँ ही चलता रहा तो परिणाम बड़ा भयंकर होगा और जिस आजादी को हम आजादी समझ रहे हैं वह भी शायद न रहे । इसलिये एक मनीषी की लेखनी ने इसी भाषा – नीति और शिक्षा – नीति पर कुछ अद्भुत लेख लिख डाले । धज्जियां उड़ाईं इन थोथी नीतियों की । बखिया उधेड़ दी बिकाऊ राजनीति की। षड्यन्त्रों की पोलपट्टी खोल दी । यह पुस्तक इन्हीं लेखों का संग्रह है जो कि ‘परोपकारी’ पत्रिका के सम्पादकीय के रूप में लिखे गये । इस अद्भुत सम्पादक का नाम डॉ. धर्मवीर था । यह अद्भुत सम्पादक, अद्भुत लेखक था । यह अद्भुत लेखक अद्भुत विचारक था, अद्भुत दार्शनिक था, अद्भुत वक्ता था, अद्भुत व्यक्ति था और सचमुच अद्भुत ही था । अस्तु ।

किसी भाषा से द्वेष करना विद्वानों का कार्य नहीं है। हाँ ! अपनी भाषा से प्रेम करना उनका कर्तव्य अवश्य है । और अगर कोई भाषा अपनी भाषा का नाश करने पर उतारू हो जाये तो वह सिर्फ भाषा न रह जाती है। डॉ. धर्मवीर जी उन व्यक्तियों में हैं जो अंग्रेजी को सिर्फ एक भाषा मानने को राजी नहीं । वे स्वयं लिखते हैं“हमारे देश में प्रादेशिक भाषायें और जर्मन, फ्रेंच, चीनी आदि भाषायें तो भाषायें हैं, परन्तु अंग्रेजी केवल भाषा नहीं है। हमारे देश के ढाई सौ वर्षों की गुलामी ने हमारे अन्दर से इसको भाषा समझने का बोध नष्ट कर दिया है। हम इसे मालिक की, बड़प्पन की, सत्ता की, प्रतिष्ठा की, सम्पन्नता की भाषा समझते हैं । ”

अब जबकि अंग्रेजी सिर्फ भाषा न रही, बल्कि षड्यन्त्रपूर्वक भारतीय संस्कृति पर किया गया एक प्रहार बन गयी तो एक राष्ट्रभक्त मनीषी का कलम उठाना आवश्यक हो गया और वही डॉ. धर्मवीर ने किया भी। डॉ. धर्मवीर महज एक व्यक्ति नहीं बल्कि विचार है। जो दूर तक की सोच को स्वयं में निहित कियेहुये है। जो भूत और भविष्य दोनों को जानता है। जो दुनिया को दयानन्द के मार्ग पर लाना चाहता है। वे यह भली प्रकार जानते हैं कि शिक्षा वह इमारत है जो कि भाषा की बुनियाद पर खड़ी होती है और श्रेष्ठ शिक्षा श्रेष्ठ भाषा की । इसलिये कहते हैं

भाषा एकमात्र ऐसा तथ्य है जो मनुष्य को पशुओं से अलग करता है। यदि मनुष्य के पास भाषा न हो तो उसके पास सभ्यता, संस्कृति, साहित्य, कला, धर्म, दर्शन कुछ भी नहीं हो सकता । ”

इतना ही नहीं। उनका स्पष्ट मानना है कि विचार उनके ही उत्तम हो सकते हैं जिनके पास भाषा की सम्पत्ति है। वे लिखते हैं

” शब्दों की दरिद्रता चिन्तन को बाधित और पंगु करती है। ”

शिक्षा का लक्ष्य तो श्रेष्ठ विचार हैं। जो विचारों की सम्पन्नता का साधन है वह आज अंग्रेजी दायरों में सिमटकर बस आजीविका के लिये जंग करती नजर आती है। यह घोर अनर्थ है। इसका प्रतिकार अत्यावश्यक है। बस इसी प्रतिकार ही का नाम तो धर्मवीर है । अंग्रेजी ने भारतीय सभ्यता पर गहरा आघात किया है और दिनोंदिन भारत की नस्ल को घुन की तरह नष्ट करने में लगी है। अगर अब न चेते तो शायद फिर अवसर भी न मिले । यही टीस तो धर्मवीर के दिल को कचोटती है। इसी ओर तो उनका संकेत है। उनका कहना है

“इस देश में अंग्रेजी शेक्सपियर तो पैदा नहीं कर सकती, परन्तु इस देश की

कालिदास और तुलसीदास को पैदा करने की क्षमता को अवश्य नष्ट कर सकती है । ” इस पुस्तक के सार को शब्दों में बाँधा जाना असम्भव सा प्रतीत हो रहा है । हाँ इतना अवश्य है कि नई पीढ़ी को इससे नई दिशा जरूर मिलेगी अथवा यों कहें कि जिस दिशा से वे भटक चुके हैं वह पुरानी दिशा जरूर मिलेगी । यहाँ यह स्मरण रहे कि यह पुस्तक लेखों का संग्रह है। यदि इन लेखों के विचार डॉ. धर्मवीर की कलम से पुस्तक रूप में ही निकल जाते तो शायद बात ही कुछ और होती । पर व्यक्ति के अभाव में ‘यदि’ जैसे शब्द निरर्थक हैं अथवा अफसोस के अतिरिक्त और कुछ नहीं। पर इन लेखों की भी अपनी एक गरिमा है, एक महत्ता है। पाठक स्वयं इस बात का अवलोकन करेंगे। यहां यह कहने की आवश्यकता नहीं कि यह पुस्तक लोगों का मार्गदर्शन करेगी। यह कहना तो ठीक वैसा होगा कि सूर्य निकलकर संसार को प्रकाशित करेगा। इसमें कहने जैसा कुछ नहीं। यह तो सर्वविदित है। हमारी दृष्टि में तो यह पुस्तक एक सागर है, जिसमें डूबकर ही पार हुआ जा सकता है। तो चलो! डूबकर देखें ।

ओममुनि मन्त्री, परोपकारिणी सभा अजमेर

(In Stock)

Sold By : The Rishi Mission Trust Category:
Weight 300 g

Reviews

There are no reviews yet.

Be the first to review “अंग्रेज जीत रहा है angrej-jeet-raha-hai”

Your email address will not be published. Required fields are marked *