Hathyog Vidya
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योग-साधना अति प्राचीन काल से ही अत्यन्त लोकप्रिय रही है, आज भी है और आगे भी रहेगी इसमें किंचित् मात्र सन्देह नहीं है। हमारे प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों का यह एक महान् अवदान सिद्ध हुआ है। भारतीय मोक्ष- साधना के क्षेत्र में योग एक सार्वभौम तथा सर्वोत्तम साधन पद्धति है। हमारे दर्शन आदि शास्त्रों में या धर्म-ग्रन्थों में किसी न किसी विषय पर या किसी अंश में वाद-विवाद बना ही रहता है। परन्तु योग ही एक ऐसा विषय है जिसमें वाद-विवाद के लिये कोई गुंजाईश नहीं है; क्योंकि योग तर्क का विषय नहीं है किन्तु अनुभूति का विषय है। इसलिये योग कहता है कि ऐसा करो, ऐसा करने से उसका फल ऐसा मिलेगा । यही कारण है कि औपनिषदिक काल के ऋषि-मुनि लोग भी इस योग-साधना में कुशल अभ्यासी बन कर योगसिद्ध योगी बन जाते थे। योगाभ्यास से होने वाले लाभों को भी वे मुक्तकण्ठ से व्यक्त करते थे। जैसे कहा है
‘न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम’ ।। श्वेता. २ / १२ ।।
अर्थात् जिस योगी ने योग-साधना का अभ्यास भली प्रकार से किया है और उस योग-साधना के द्वारा योगाग्निमय शरीर प्राप्त कर लिया है उस योगी को कोई भी रोग नहीं होता है। उसके पास शीघ्र बुढ़ापा नहीं आता है और उस योगी को मृत्यु भी शीघ्र प्राप्त नहीं होती है। यही योग की विशेषता है।’ इसे बहिरंग योग या हठयोग विद्या के चमत्कार कहे तो अत्युक्ति नहीं होगी। योग के इन्हीं महान् लाभों तथा गुणों के कारण ही आज ‘योग- चिकित्सा’ नामक एक नयी चिकित्सा पद्धति भी विकसित हुई है।
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