Himalaya Ka Yogi Vol 1-2
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महापुरुष सभ्यता, संस्कृति और धर्म के स्रोत होते हैं। वास्तव में वे किसी भी देश अथवा राष्ट्र की अलौकिक निधि होते हैं। इनके द्वारा ही मानव-आत्मा का रक्षण और पोषण होता है। विश्व – कल्याण के लिए वे सदैव चिन्तित रहते हैं। अज्ञान के गहन गर्त में डूबे जीवों की दयनीय दशा को देखकर वे द्रवित होते हैं और अपनी अहैतुकी कृपा की वर्षा वे उन पथभ्रष्टों और किंकर्त्तव्यविमूढ़ प्राणियों पर शाश्वतरूपेण करते रहते हैं। जब मानव धर्म के प्रति उदासीन हो जाता है, अधर्म की अभिवृद्धि होने लगती है, पापाचरण का समर्थन होता है, भगवद्भक्तों का उपहास और अपमान होने लगता है, तब आर्तों की आर्ति हरण करने तथा दुःखितों के दुःखों को दूर करने और पतितों के परित्राण, धर्म के उद्धार, सभ्यता तथा संस्कृति के सुधार, पावन परम्पराओं की पुनःस्थापना और लोक-कल्याण के लिए जगन्नियन्ता प्रभु किसी न किसी समर्थ उत्तम विभूति को संसार में प्रेषित किया करते हैं। महानात्मा ब्रह्मर्षि प्रातः स्मरणीय पूज्यपाद नैष्ठिक ब्रह्मचारी स्वामी योगेश्वरानन्द परमहंस उन दिव्य विभूतियों में से एक हैं। योग
का पुनरुद्धार
भक्तिभाव की जाह्नवी तो अनेक विमल धाराओं सहित किसी न किसी रूप में हमारे देश में गत कई शताब्दियों से प्रवाहित होती रही। समय-समय पर इसका विभिन्न सहायक धाराओं से परिपोषण और परिवर्धन होता रहा। कबीर, रविदास, नामदेव, एकनाथ, रामदास आदि इसी भक्तिमय परम्परा के पथिक थे, किन्तु योगपरम्परा को हमारा समाज बिल्कुल भूल गया था। भक्ति मार्ग की सरलता और में सुगमता आकर्षण था। भक्ति बड़ी सुबोध और आसानी से समझ में आ जाती थी। सहजगम्य होने से वह साधारणजनप्रिय भी थी। पापात्माओं को भी उल्टा – सुल्टा भगवन्नाम स्मरणमात्र से ही परित्राण की आशा दिलाती थी । अतः वह सर्वाधिक लोकप्रिय बन गयी। –
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