यह सर्ववादिसम्मत है कि महाभारत से पूर्व वैदिक धर्म के अतिरिक्त कोई मत नहीं था । वैदिक धर्म का अर्थ है वेदों पर आधारित धर्म, वेद ईश्वरीय ज्ञान है और सर्वाधिक प्रामाणिक है। कालान्तर में वही विकृत होकर अनेक मत-मतान्तरों के रूप में संसार में फैल गया। नवीन मत, वैदिक काल की सी अवस्था लाने में बाधक है। नवीन मत सत्य की दृष्टि से अग्राह्य और संसार के कल्याण की दृष्टि से सर्वथा अवांछनीय है। संसार का कल्याण चाहने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये उनका खण्डन करना आवश्यक था। इस कठिन कार्य को महर्षि दयानन्द जैसे विद्वान, सत्यनिष्ठ, निष्पक्ष एवं निर्भीक महामानव ने कर दिखाया ।
। महर्षि दयानन्द ने अपने सिद्धान्तों और मान्यताओं को स्पष्ट करने के लिये बृहद् साहित्य की रचना की, उनमें सत्यार्थ प्रकाश अन्यतम है। सत्यार्थप्रकाश में चौदह समुल्लास हैं, प्रथम दश समुल्लास में मानव मात्र के आचरणीय धर्म की विस्तृत मीमांसा है । ११-१४ समुल्लास में भारत वर्षीय तथा अन्य देशस्थ नवीन मत-सम्प्रदायों की आलोचना है। जो सिद्ध करती है कि वे अपने कर्त्तव्य के प्रति पूर्णतया जागरूक थे। अपनी समालोचना में महर्षि दयानन्द पूर्णतया पूर्वाग्रह मुक्त दृष्टिकोण लेकर प्रवृत्त हुए थे। आप यह अनुभव करते थे कि वैदिक धर्म के दिव्य आलोक से जो मत एवं सम्प्रदाय जितनी दूर चले गये हैं, मानव जाति को पथभ्रष्ट करने में वे उतने ही सक्षम हैं ।
सत्यार्थ-प्रकाश के उत्तरार्द्ध लेखन में महर्षि दयानन्द को पर्याप्त परिश्रम करना पड़ा था। आपने व्यापक देशाटन, भ्रमण, मत मतान्तरों के विभिन्न रूपों का दर्शन तथा धार्मिक ग्रंथों के विपुल अध्ययन के द्वारा धर्म के नाम पर प्रचलित विश्वासों की यर्थाथता को जान लिया था। वे यह भी अनुभव करते थे कि धर्मालोचन तथा मत समीक्षा का कार्य पर्याप्त कंटकाकीर्ण होता है। इसलिये ग्रंथ की भूमिका के अन्त में यह आशंका प्रकट की कि इस ग्रन्थ को देखकर अविद्वान लोग अन्यथा ही विचारेंगे परन्तु बुद्धिमान लोग यथायोग्य इसका अभिप्राय समझेंगे
Weight | 300 g |
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Dimensions | 22 × 14 × 2 cm |
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