वैदिक धर्म का लोप हुए सैंकड़ों वर्ष व्यतीत हो चुके थे। जिस सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर की राम और कृष्ण उपासना करते थे, उस परब्रह्म परमेश्वर को छोड़कर उपासक राम और कृष्ण को उपास्य मानकर उन्हीं की पूजा-अर्चना करने लग गये थे। गीता में कहा था’ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति ‘ – (गीता १८ / ६१ ) किन्तु भक्तों ने उसे हृदय मन्दिरों से निकालकर गली-सड़कों पर बने ईंट-पत्थरों के मन्दिरों में कैद कर दिया था ।
‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ की मनमानी घोषणा करके ईश्वर और वेद के नाम पर निरीह पशुओं की हत्या करके तथाकथित भक्तजन प्रसन्न हो रहे थे । गुण-कर्म-स्वभाव पर आधारित प्राचीन वर्ण व्यवस्था का स्थान जन्म पर आधारित दूषित जाति-व्यवस्था ने ले लिया था। मनुष्य मनुष्य के बीच जन्मगत जात-पात छुआ-छूत और धर्मकर्म की फौलादी दीवारें खड़ी कर दी गई थी । ईश्वर के जितने भी नाम मिल सके उतने ही देवी-देवताओं की कल्पना करके न जाने कितने मत-सम्प्रदाय इस देश में उभर रहे थे । व्यक्तियों के धर्म-कर्म और समाज की सामाजिक व्यवस्था पर पण्डों, पुजारियों, पुरोहितों और पंचों का एकाधिपत्य था । अभ्युदय और निःश्रेयस का साधक धर्म विभिन्न रूपों में व्यक्ति, समाज और देश के सर्वनाश का कारण बन गया था। ऐसी विषम परिस्थिति में महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव हुआ । वस्तुतः वही भारतीय पुनर्जागरण के
पुरोधा थे। महर्षि ने अपने सिद्धान्तों के प्रसार के लिये वाणी और लेखनी दोनों का प्रयोग किया। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में युग प्रवर्त्तक, महान् समाज सुधारक, वेदोद्धारक महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना की । मानव उद्धार के लिये लिखा गया यह अद्वितीय ग्रन्थ है । यह वह समय था जब ईश्वर के नाम पर मनमानी ठगी हो रही थी । ज्ञान, कर्म, उपासना मुक्ति के मार्ग समाप्त हो गये थे। पुराण मात्र धर्म के पुस्तक माने जाते थे, लगभग एक हजार मत-मतान्तर लोगों को वेद विरुद्ध मार्ग पर ले जा रहे थे । महर्षि दयानन्द ने पहली बार हमें इन साम्प्रदायिक मत-मतान्तरों से ऊपर उठकर हमारे स्वर्णिम प्राचीन धर्म से जोड़ने का प्रयास किया और फिर से हमें वैदिक धर्म का मार्ग दिखाया।
उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में बतलाया कि धर्म तो विद्या पढ़ने, ब्रह्मचर्य करने, पूर्ण युवावस्था में विवाह, सत्संग, पुरुषार्थ और सत्याचरण आदि में हैं। जिन नित्य कर्मों को व्यक्ति भुला बैठा था, उसका विधान सत्यार्थ प्रकाश में किया । आधुनिक काल में सर्वप्रथम पाखण्ड और आडम्बरपूर्ण धर्म पर विचार करने की शक्ति महर्षि ने दी। गंगा स्नान को मुक्ति का साधन माना जाता था । वेद मंत्रों से मूर्त्तिपूजा सिद्ध की जाने लगी थी। उन्होंने कहा कि वेदों में प्रतिमा पूजन एवं अवतार का कोई विधान नहीं हैं। आर्ष ग्रन्थों और वेदों के आधार पर प्रतिमा पूजन एवं अवतार का विरोध कोई विद्वान् आज तक नहीं कर सका था। महर्षि ने कहा कि ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान तो केवल वेदों द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि वेद ही ईश्वर की कृति है। सत्यार्थ प्रकाश वेद नहीं है, पर वेदमार्ग पर अग्रसर होने में सहायक है।
Weight | 300 g |
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Dimensions | 22 × 14 × 2 cm |
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