हमारे देश में अनेक प्रकार की विचारधाराएँ धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, सार्वजनिक आदि श्रेणी में रख सकते हैं। इन विचारधाराओं पर ही मानव, समाज और देश की प्रगति निर्भर करती है। यही कारण है कि धार्मिक मान्यताएँ और रीति-रिवाज हमारे सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकते हैं। इसलिये समाज में फैले धार्मिक एवं सामाजिक अन्धविश्वासों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। महर्षि दयानन्द ने “मजहब में अकल का दखल नहीं” की प्राचीन मान्यताओं को अस्वीकार करके धार्मिक क्षेत्र में तर्क और बुद्धि को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में महर्षिवर दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश की रचना वैदिक मन्तव्यों को स्पष्ट करने और अमन्तव्यों की विवेचना व समीक्षा के लिए की थी, जिससे अर्थों- सिद्धान्तों का प्रकाश यथार्थरूप में हो सके और जिसके अनुसार अनुष्ठान करने पर प्रत्येक मानव अभ्युदय एवं निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए अनायास प्रयत्नशील हो सके । इस भावना से उन्होंने प्रथम दस समुल्लासों में अपने मन्तव्य सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया और अन्तिम चार समुल्लासों में अन्य सभी मत-मतान्तरों व सम्प्रदायों की न्यायपूर्ण एवं युक्तियुक्त समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक जानकारी का दिग्दर्शन कराया है। सत्यार्थ प्रकाश के समीक्षा-भाग के पहले एवं ग्रन्थक्रम के अनुसार ग्यारहवें समुल्लास में उन विचारों व मतों का विवेचन प्रस्तुत किया है, जिनमें मूलभूल वैदिक सिद्धान्तों को विकृत कर दिया गया है, पर जिन्हें आज मूलभूत सिद्धान्तों के रूप में माना जा रहा है। उसके पश्चात् ईसाई और इस्लाम आदि मतों के सत्याऽसत्य की समीक्षा की। समीक्षा से महर्षि दयानन्द का अभिप्राय है कि धर्म को तर्कसंगत, युक्तियुक्त एवं सहेतुक बनाया जाय, “बाबा वाक्यं” को प्रमाण न माना जाय अपितु सत्यासत्य की परीक्षा करके सत्य को ग्रहण किया जाय और असत्य का परित्याग किया जाय ‘क्योंकि, सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।’
Weight | 300 g |
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