आदर्श गार्हस्थ्य जीवन aadarsh gaarhasthy jeevan
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‘आदर्श गार्हस्थ्य जीवन’ के लेखक आचार्य श्री भद्रसेनजी शास्त्री ने यह ग्रन्थ अथर्ववेद के एक मन्त्र के आधार पर लिखा है। वह मन्त्र है—
इमे गृहा मयोभुव उर्जस्वन्तः पयस्वन्तः। पूर्णा वामेन तिष्ठन्तस्ते नो जानन्त्वायतः॥
—अथर्व० ७।६०।२ इस मन्त्र में गृहस्थ जीवन की सफलता के ५ गुर बतलाये गये हैं जिनका भाव निम्न प्रकार है
(१) हम सुख, शान्ति और आनन्द का जीवन व्यतीत करनेवाले हों। (२) हम बल, वीर्य, पराक्रम तथा पुरुषार्थ से पूर्ण सम्पन्न हों। (३) हम दूध, दही, घी, माखन आदि पौष्टिक पदार्थों के स्वामी हों और उनका सेवन करनेवाले हों। (४) हमारे सत्याचरण (आचार, विचार, व्यवहार तथा भाषण आदि) में कोई न्यूनता व अपूर्णता न हो। (५) हम में वे सब श्रेष्ठ गुण हों, जिनसे सब हमें सत्कारपूर्वक जानें, जब हम उनके बीच में जा उपस्थित हों ।
कहने को तो इन चार, पाँच संक्षिप्त वाक्यों में केवल एक एक ही गुरुमन्त्र समाविष्ट है किन्तु यदि इन पर मनन किया जाए तो पता चलेगा कि इनमें अनेकों सुन्दर भाव ओत-प्रोत हो रहे हैं । जब भगवान् कृष्ण की शिशुपाल के वध के लिये सुदर्शन चक्र चलाते समय अंगुली कट गई और रक्त की बूँदें बहने लगीं, तब अन्य जन तो पट्टी बाँधने के लिए वस्त्र की खोज में इधर-उधर भटकने लगे परन्तु महाराणी द्रौपदी ने यज्ञ में धारण की हुई अपनी बहुमूल्य साड़ी का झटपट पल्ला फाड़कर पट्टी बाँध दी । यह सीन मैंने १९१० में, जब मैं दसवीं श्रेणी में पढ़ता था, एक थिएट्रीकल कम्पनी के महाभारत नामक खेल में देखा था। पट्टी बन्ध चुकने के पश्चात् कृष्ण-द्रौपदी सम्वाद एक गाने के रूप में सुना, जो कि मुझे अब तक याद हैभगवान् कृष्ण–’तेरी इतनी चुनरिया ने मोहे हर लीनो ‘ द्रौपदी – गिनती के थे दो तीन तागे । –
भाव बढ़ा जब घाव पै लागे ॥
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