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Rigvedadibhashy Bhumika
Rs.170.00Rs.150.00Sold By : The Rishi Mission Trust“वेदों का प्रवेश द्वार ऋषि दयानन्द का ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ”
वेदों का महत्व मनुष्य-जीवन के लिये सर्वाधिक है। वेद परमात्मा की शाश्वत् वाणी है। यह वाणी ज्ञानयुक्त वाणी है
जो मनुष्य जीवन की सर्वांगीण उन्नति का मार्गदर्शन करती है। वेदों के मर्मज्ञ विद्वान ऋषि
दयानन्द ने कहा है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है और इसका पढ़ना-पढ़ाना तथा
सुनना व सुनाना सब आर्यों अर्थात् मनुष्यों का परम-धर्म है। वेदों का अध्ययन करने से मनुष्य
की नास्तिकता दूर होती है। वेदाध्ययन से यह एक प्रमुख लाभ होता है। वेदों का अध्ययन करने
से ईश्वर व आत्मा सहित प्रकृति के सत्यस्वरूप का ज्ञान भी होता है। यह ज्ञान मत-मतान्तरों
के ग्रन्थों व इतर साहित्य को पढ़ने से नहीं होता। वेद संसार का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है।
परमात्मा ने वेदों का ज्ञान अमैथुनी सृष्टि के ऋषियों व मनुष्यों को प्रदान किया था। सृष्टि को
बने व मानपव उत्पत्ति को 1.96 अरब वर्षों से अधिक समय हो चुका है। इतना पुराना ज्ञान हमें
पूर्ण सुरक्षित रूप में प्राप्त हुआ है, इसके लिये हम ईश्वर, ऋषियों व वेदपाठी ब्राह्मणों के
आभारी हैं। ईश्वर की इस देन के लिये उसका कोटिशः धन्यवाद है। ऋषि दयानन्द (1825-
1883) के समय में वेद विलुप्त हो चुके थे। वेदों के सत्य अर्थों का किसी विद्वान को निश्चयात्मक ज्ञान नहीं था। उनके पूर्ववर्ती
किसी आचार्य के वेद के सत्य अर्थों से युक्त ग्रन्थ भी कहीं उपलब्ध नहीं होते थे। संस्कृत के कुछ व्याकरण ग्रन्थ जिन्हें वेदांग
कहा जाता है, उपलब्ध थे। इन में शिक्षा, अष्टाध्यायी, महाभाष्य, निरुक्त आदि ग्रन्थ उपलब्ध थे। ऋषि दयानन्द ने इन
वेदांगों के अध्ययन सहित अपनी योग व समाधि से प्राप्त शक्तियों के आधार पर वेदों को प्राप्त कर उसके प्रत्येक मन्त्र के अर्थ
को समझा था और उस ज्ञान में विद्यमान दिव्यता एवं सृष्टि में घट रहे ज्ञान व विज्ञान के उसके सर्वथा अनुकूल पाकर उस
वेदज्ञान का अपने विद्यागुरु की आज्ञा व प्रेरणा से देश व समाज में प्रचार किया। ऋषि दयानन्द ने सायण एवं महीधर के
वेदभाष्य का अध्ययन कर उनके मिथ्यार्थों का भी अनुसंधान किया था और प्राचीन ऋषि परम्परा के अन्तर्गत महर्षि यास्क,
ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद आदि ग्रन्थों के अनुरूप वेदमन्त्रों के यथार्थ अर्थ किये थे। वेदों का अध्ययन मनुष्य के
आध्यात्मिक एवं सामाजिक ज्ञान सहित सभी प्रकार के ज्ञान में वृद्धि करता है। जिन व्यक्तियों को महर्षि दयानन्द के वेदों के
पोषक सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों को देखने व अध्ययन करने का
अवसर मिला है वह वस्तुतः सौभाग्यशाली हैं। हम समझते हैं कि ऐसा करने से उनका इहलोक एवं परलोक दोनों सुधरे हैं। जिन
बन्धुओं को वेद पढ़ने का अवसर नहीं मिला है वह वेदों की भूमिका स्वरूप ऋषि प्रणीत सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका,
संस्कारविधि एवं आर्याभिविनय आदि का अध्ययन कर उनके वेदभाष्य का अध्ययन करें तो उन्हें वेदार्थ का बोध हो सकता है।
इससे वेदाध्यायी की अविद्या का नाश होकर विद्या का लाभ प्राप्त होगा। जिस प्रकार किसी पदार्थ का स्वाद उसे खाकर व
चखने पर ही ज्ञात होता है इसी प्रकार वेदों का महत्व व लाभ वेदों का अध्ययन कर ही जाना व अनुभव किया जा सकता है।
महर्षि दयानन्द अपने विद्या गुरु विरजानन्द सरस्वती, मथुरा से विद्या प्राप्त कर उनकी प्रेरणा से अज्ञान के
निवारण एवं ज्ञान के प्रसार के कार्य में प्रवृत्त हुए थे। उनके गुरु ने उन्हें बताया था कि संसार में अल्पज्ञ मनुष्यों द्वारा रचित
ग्रन्थ अविद्या से युक्त हैं तथा पूर्ण विद्वान योगी व ऋषियों के वेदानुकूल ग्रन्थ ही निर्दोष एवं पठनीय हैं। अतः वेदाध्ययन में
सहायता के लिये ही ऋषि ने पहले सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखा और वेदभाष्य के कार्य में प्रवृत्त होने के अवसर पर उन्होंने चारों
वेदों की भूमिका के रूप में ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्थ वर्तमान में आसानी से सुलभ हो जाता है।
वेदों पर इतना महत्वपूर्ण ग्रन्थ इससे पूर्व कहीं किसी ने नहीं लिखा। जर्मन मूल के विदेशी विद्वान प्रो0 फ्रेडरिच मैक्समूलर ने
भी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्ययन करने के बाद लिखा कि वैदिक साहित्य का आरम्भ ऋग्वेद से होता है और ऋषि2
दयानन्द की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पर समाप्त होता है। यह ऋषि दयानन्द जी की विद्या का जादू है जो प्रो0 मैक्समूलर के
सिर पर चढ़कर बोला है। हमें ऋषि के ग्रन्थों को पढ़ने का अवसर मिला है। अपने अल्पज्ञान के आधार पर हमें लगता है कि
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्ययन कर लेने पर मनुष्य वेद विषयक प्रायः सभी मान्यताओं एवं सिद्धान्तों से परिचित हो
जाता है। इसके बाद वेद का अध्ययन एक प्रकार से भूमिका ग्रन्थ में दिये गये वैदिक सिद्धान्तों की व्याख्या है। हम जितना
अधिक भूमिका ग्रन्थ का अध्ययन करेंगे उतना ही ईश्वर व आत्मा के विषय में हमारे ज्ञान में वृद्धि होगी और हमारी अविद्या
दूर होगी। हमें भूमिका ग्रन्थ के अध्ययन से ईश्वरोपासना की प्रेरणा मिलेगी और इसके साथ ही वेदाध्ययन की प्रवृत्ति उत्पन्न
होकर वेदानुसार आचरण करने का स्वभाव भी स्वतः बनेगा। ऋषि दयानन्द सहित उनके सभी प्रमुख शिष्यों स्वामी
श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम, पं0 गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द, पं0 चमूपति जी आदि सभी ने वेदाध्ययन
किया और इसके परिणामस्वरूप उनका आचरण व स्वभाव वेदानुकूल बना। इसे ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन का
प्रभाव कहा जा सकता है।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वेदाध्ययन में प्रवेश का द्वार है। इसका कारण यह है कि ऋषि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ
विद्वान थे। उन्होंने चारों वेदों का सार अपने इस ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है। हमें इस ग्रन्थ का सबसे बड़ा महत्व इसका हिन्दी व
संस्कृत दोनों भाषाओं में रचा जाना भी लगता है। ऋषि के शब्दों को पढ़कर हमारा सम्बन्ध सीधा ऋषि की आत्मा से निकले
शब्दों व साक्षात् उनकी आत्मा से हो जाता है। यद्यपि आज ऋषि हमारे सम्मुख व निकट अपनी आत्मा व साक्षात् रूप में
विद्यमान नहीं है परन्तु उनकी आत्मा से निकले शब्द भी उनकी विद्या एवं भावनाओं का दिग्दर्शन कराते हैं।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं उनके ग्रन्थों को पढ़ते हुए हमें उनके सान्निध्य के अनुभव व उसकी प्रतीती होती है जो अत्यन्त
सुखद एवं तृप्तिदायक होती है। वह लोग निश्चय ही भाग्यशाली है जो नित्यप्रति ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का अध्ययन करते
हैं। इससे उनका ऋषि दयानन्द के साथ सत्संग हो जाता है और इसका लाभ भी निःसन्देह ज्ञानवृद्धि सहित जीवन के लक्ष्य
मोक्ष प्राप्ति कराने में सहायक होता है।यह साधारण बात नहीं है।
ऋषि दयानन्द ने वेदों को सभी सत्य विद्याओं का भण्डार कहा है। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ की रचना करते
समय उन्हें इस बात का ध्यान रहा है कि इस ग्रन्थ से वेद विषयक इस मान्यता का पोषण होना चाहिये। अतः उन्होंने निम्न
विषयों पर वेदों की मान्यताओं एवं सिद्धान्तों के वेदमन्त्रों को प्रस्तुत कर उनका सत्यार्थ प्रस्तुत किया है।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में सम्मिलित किये गये विषय निम्न हैं‘
1- ईश्वर प्रार्थना विषय
2- वेदोत्पत्ति विषय
3- वेदानां नित्यत्व विचारः
4- वेद विषय विचार
5- वेद संज्ञा विचार
6- ब्रह्म विद्या विषय
7- वेदोक्त धर्म विषय
8- सृष्टि विद्या विषय
9- पृथिव्यादि लोक भ्रमण विषय
10- आकर्षण अनुकर्षण विषय
11- प्रकाश्यप्रकाशक विषय
12- गणित विद्या विषय
13- ईश्वर स्तुति प्रार्थना याचना समर्पण विषय3
14- उपासना विषय
15- मुक्ति विषय
16- नौ विमान आदि विद्या विषय
17- तार विद्या का मूल
18- वैद्यकशास्त्रमूलोद्देशः
19- पुनर्जन्म विषय
20- विवाह विषय
21- नियोग विषय
22- राज-प्रजा-धर्म विषय
23- वर्णाश्रम विषय
24- पंचमहायज्ञ विषय
25- ग्रन्थ प्रामाण्य अप्रमाण्य विषय
26- अधिकार अनाधिकार विषय
27- पठनपाठन विषय
28- वेदभाष्यकरण शंका-समाधान आदि विषय
29- प्रतिज्ञा विषय
30- प्रश्नोत्तर विषय
31- वैदिक प्रयोग विषय
32- स्वर व्यवस्था विषय
33- वैदिक व्याकरण नियम
34- अलंकार भेद विषय
35- ग्रन्थ संकेत विषय
वेदों के माध्यम से ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में जो ज्ञान दिया है वह मन्त्रों के रूप में है। मन्त्र शब्द-वाक्यरूपों में हैं।
यह ज्ञान अधिकांश पद्यमय है। वेदों का भाष्य करते हुए ऋषि दयानन्द जी ने वेदों के मन्त्रों वा पद्यों के पदों का सन्धि-
विच्छेद कर शब्दों को क्रम से अन्वय वा व्यवस्थित कर उनके पदों व शब्दों का संस्कृत व हिन्दी में अर्थ दिया है। इसके साथ ही
मन्त्र का भावार्थ भी दिया गया है। इन्हें पढ़कर मन्त्र में ईश्वर के सन्देश को जाना जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने चारों वेदों के
लभगग 20,500 मन्त्रों का अध्ययन कर व उनके अर्थों को जानकर ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ की रचना की है। यह एक
असम्भव सा कार्य था जिसे ऋषि दयानन्द ने अपने वैदुष्य एवं योग बल से सम्भव कर दिखाया। हमारा सौभाग्य है कि हमें
ऋषि दयानन्द के किये भाष्य सहित अवशिष्ट भाग पर उनके मार्गानुगामी आर्य विद्वानों के भाष्य सुलभ हैं जिसके द्वारा हम
वेदों के पदार्थ वा शब्दार्थ सहित मन्त्रों के भावार्थ को भी जान सकते हैं।
ऋषि दयानन्द के साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान पं0 युधिष्ठिर मीमांसक जी ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का महत्व बताते
हुए लिखा है कि ‘ऋषि दयानन्द सरस्वती के समस्त ग्रन्थों में ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का महत्व सब से अधिक है, क्योंकि इस
ग्रन्थ में ऋषि दयानन्द ने वेद के उन महत्वपूर्ण सिद्धान्तों और वेदार्थ की प्रक्रिया की व्याख्या की है, जिस पर ऋषि दयानन्द
कृत वेदभाष्य आधृत है। इतना ही नहीं, वेद के प्राचीन व्यख्यानरूप ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् के तत्वों को वास्तविक
रूप में समझने का भी यही एकमात्र साधन है।’4.पं0 युधिष्ठिर मीमांसक जी ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका की रचना पर भी प्रकाश डाला है। वह लिखते हैं कि ‘ऋषि
दयानन्द ने भाद्र शुक्ला 1 वि. सं. 1933 (20 अगस्त 1876) से वेदभाष्य की नियमित रूप से रचना आरम्भ की, और साक्षात्
वेदभाष्य बनाने से पूर्व वेद और उसके भाष्य के सम्बन्ध में जो आवश्यक जानकारी देना अपेक्षित थी, उसके लिये
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका नाम की भूमिका लिखनी आरम्भ की। इस भूमिका की पाण्डुलिपि (रफ) कापी लगभग तीन मास में
पूर्ण हो गई, परन्तु उसके पीछे कई मास इसी भूमिका के परिवर्धन व परिष्करण में लग गए। ऋग्वेदादिभाश्यभूमिका की महत्ता
को ध्यान में रखकर ऋषि दयानन्द ने इसमें कई बार परिवर्धन वा परिष्करण किए। परोपकारिणी सभा के संग्रह में भूमिका के
6 हस्तलेख विद्यमान है, जो उत्तरोत्तर परिष्कृत वा परिवर्धित हुए हैं। अन्तिम परिष्कृत हस्तलेख का आरम्भ विक्रमी सम्वत्
1933 के फाल्गुन के पूर्वार्ध में हुआ, ऐसा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के निम्न वचन से ज्ञात होता है–
जैसे विक्रम संवत् 1933 फाल्गुन मास, कृष्ण पक्ष, षष्ठी, शनीवार के दिन के चतुर्थ प्रहर के प्रारम्भ में यह बात हमने
लिखी। ऋभाभू0 पृष्ठ 28 (रामलाल कपूर न्यास द्वारा प्रकाशित आर्यसमाज स्थापना शताब्दी संस्करण संस्करण)’
वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। वेद मन्त्र, छन्द व स्वरों में बद्ध हैं। ऋषियों ने सभी वेद मन्त्रों के देवता व ऋषि भी निश्चित
किये थे जो अद्यावधि लिखे जाने की परम्परा है। वेदों मन्त्रों के सत्यार्थ मन्त्र-भाष्य के रूप में ऋषि दयानन्द के जीवनकाल में
उपलब्ध नहीं थे। इसके विपरीत सायण एवं महीधर के जो वेदार्थ थे वह अशुद्ध व दूषित थे, जिसका उल्लेख ऋषि दयानन्द ने
सोदाहरण प्रस्तुत किया है। इसी कारण ऋषि को वेदों के सत्यार्थ को प्रस्तुत करने के लिये वेदभाष्य करने की योजना बनानी
पड़ी जिसके लिये उन्होंने प्रथम ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ की रचना की थी जिससे उनके वेदभाष्य के पाठकों को वेदार्थ
समझने में सुविधा हो। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वेदों पर लिखा गया एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
को पढ़े बिना ऋषि के वेद भाष्य से भी वह लाभ नहीं होता जो कि भूमिका को पढ़ने के बाद होता है। सभी वेदज्ञान पिपासुओं को
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। इससे वह वेदों में क्या है, इस प्रश्न के उत्तर सहित वेदों की वर्णन
शैलियों को भली प्रकार से समझ सकेंगे। ओ३म् शम्।-मनमोहन कुमार आर्य
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Light of Truth / Satyarth Prakash (English Translation)
Rs.300.00Rs.250.00Sold By : The Rishi Mission TrustSatyarth Prakash (Light of Truth) deals with the docttrines of the Sanatan Vedic Dharma and philosophy. It also consists of critical examination of different religions and sectorian beliefs. This Book as translation of Satyarth Prakash into English is unique in several aspects. As most of the Vedic terms and Samskrita words do not have their equivalent in the English vocabulary, the translator has very carefully chosen the English words which convey the correct and right meaning of the terms to a greater range in this translation. Besides, being a scholar of Samskrita and science, his insight into the Veda mantras, Slokas and other Samskrita aphorisms is remarkable. He has thus made this translation easily understable and to the point both for the Indians who are familiar with the Vedic and Samskrita terms and also for the English speaking people who are eager to have a clear understanding of the ancient and oldest Sanatana Vedic Dharma, culture and history of the Āryas. This translation is indeed a must read for missionaries, students of comparative religions, and for the seekers of truth.
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